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Sunday, March 28, 2021

Science behind Holi, the festival of Colours

Holi is played in the Spring Season which is a period between end of winter and advent of summer. We normally go through the transition phase of winter and summer.  The period induces the growth of bacteria in the atmosphere as well as in the body. When Holika is burnt, temperature of the nearby area raises around 50-60 degree Celsius. Following the tradition when people perform Parikrama (go around the bonfire/pyre), the heat coming from the bonfire kills the bacteria in the body and cleanses it.

In some parts of the country, after Holika Dahan (burning of Holika) people put ash on their forehead and also mix Chandan (paste of sandal wood) with the young leaves and flowers of the Mango tree and consume. It is believed to promote good health.

This is the time, when people get the feeling of tardiness. This is quite natural for the body to experiences some tardiness because of change in weather from cold to the hot in the atmosphere. To counter this laziness, people sing Songs (Phag, Jogira etc.) with Dhol, Manjira and other traditional instruments. This helps in rejuvenating the human body. Their physical movement while playing with colours also helps in the process.

Colours play vital role in fitness of human body. Deficiency of a particular colour could cause an ailment and can be cured when that colour element is supplemented either through diet or medicine. In ancient times, when people started playing Holi, the colours used by them were made from natural sources like turmeric, Neem, Palash (Tesu) etc. The playful pouring and throwing of colour powders made from these natural sources has a healing effect on the human body. It has the effect of strengthening the ions in the body and adds health and beauty to it.

Source,  Blog, vinod kushwaha

Wednesday, March 17, 2021

कुछ यादें कभी नहीं भुलती

वो स्पेंसर और सिटी सेण्टर की शाम,

सत्यम और इनोक्स में भीड़ की लम्बी आलम,

कैंप रोड की जगमगाती और भागती रफ़्तार,

वो पानी टंकी के मैदान में क्रिकेट खेलने की मार 

वो MMM PG College ki  की लम्बी भीड़,

वो Masters होने का एक अलग सा अभिमान,

वो science department का एकलौता रास्ता,

वो रेलवे प्लेटफार्म कि सीढीयो पे चढ़ कर सु सु करने की पागलपन ॥२॥

 वो घरवालो से  कालेज वोल कर रास्तमे रह जाना

रात के अँधेरे में गलियों मे चिलाना 

वो परमठ मन्दिर में। हर हर महादेव जपना,

वो जब कुछ कर के दिखने का सपना ॥३॥

 साल बीतते गये,

नये नये लोग मिलते गये,

अब सुबह सुबह ऑफिस शाताती,

रात मालूम नहीं कब बीत जाती ॥

Saturday, March 13, 2021

कुछ हमने कह दिया कुछ हमने सुन लिया

कुछ हम ने कह दिया तो बुरा मान गए हैं
कुछ हम ने सुन लिया तो बुरा मान गए हैं

दुनिया के हर सितम वो मेरे नाम कर गए
सब हमने सह लिया तो बुरा मान गए हैं

अपने ज़मीर का हम सौदा न कर सके
ये ज़ुर्म्र कर लिया तो बुरा मान गए हैं

वो गुलपसंद थे हमें ख़ारों से प्यार था
इक खार चुन लिया तो बुरा मान गए हैं

शीरी जुबान अब तो खंज़र-सी हो गई है
मुँह हमने सी लिया तो बुरा मान गए हैं

उनको यकीं था शायद घुट जाएंगी साँसें
कुछ दिन तपिश जिया तो बुरा मान गए हैं

      Vinod kushwaha

Monday, March 8, 2021

लिबास

एक हम हैं जो अभी भी वही लिबास पहने हुए हैं
रेशो की परतों पर कुछ धूल भी जम चुकी है
यादों की तपिश में कुछ रंग भी हल्का हो गया है
कुछ कड़वी यादो के जख्म धोए तो थे
मगर दाग जाने का नाम ही नहीं लेते
एक रोज कोशिश भी की थी उस लिबास को उतारने की
पर तुम्हारी यादों की हवायें इतनी सर्द थी
की उसे बिना पहने रूह की ठंडक जाती ही न थी
खैर अभी भी वो लिबास मुझे जकड़े हुए है
शायद मुझे आदत नहीं है कमीज़ की तरह रिश्ते बदलने की !!!!

Sunday, March 7, 2021

मेरी कलम

दवात की शीशी से झाँक रही है सूखी हुयी स्याही..
पूछती है, क्यों नाराज़ हो क्या?

उधर मेज़ पर औंधें मुंह पड़ा है मेरा पुराना कलम..
मानो खिसिया के कह रहा हो..
“देख लूँगा”…

फिर एकाएक कर बोला..
मियाँ, क्या लिख रहे हो?
ये जो तुम टक-टक करते रहते हो फ़ोन-आई-पैड पर,
उसे ‘लिखना’ नहीं, ‘टाइपिंग’ कहते हैं…

तुम्हारी कविताओं में अब वो बात नहीं,
सिर्फ शब्दों का धुंआ है, कला की भभकती आग नहीं…

तुम्हारे लफ्ज़ अब पन्नों पर नाचना भूल गए हैं…
तुम्हारी कविता मुझसे आँख-मिचोली खेलते-खेलते खो गयी है…

लगता है भूल गए वो रात-रात भर जागकर,
कागज़ों पर लिखना-मिटाना और फिर लिखना…
एक के बाद एक पन्नों पर कलम से लफ़्ज़ों की बौछार करना…

पर मैं तुमसे क्या शिकवा-शिकायत करूँ,
तुम तो प्यार का इज़हार भी वॉट्सऐप पर करते हो…
और देशभक्ति भी सिर्फ फेसबुक और ट्विटर पे जताते हो….

Wednesday, March 3, 2021

मेरे गाँव की सड़क

  कहीं टूटती सी, कहीं फूटती सी, मेरे गाँव के बीच से गुज़रती ये टूटी-फूटी सड़क..जानती है दास्ताँ, हर कच्चे-अधपक्के मकान की, हर खेत,हर खलिहान की…ये सड़क जानती है,कब कल्लू की गय्या ब्याई थी,और कब रज्जन की बहू घर आई थी,ये सड़क जानती है,कब बग़ल के चाचा ने दम तोड़ा थी,कब चौरसिया ने लुगाई को छोड़ा थी..मेरे गाँव की सड़क ये जानती है,तिवरिया के आम के बाग़ सेरेंगती हुई इक पगड़डीसीधे निकलती है उस चौराहे पे,जहाँ चार बरस पहले,औंधे मुँह गिरा था श्यामलाल फिसलकर अपनी फटफटीया से..ये सड़क जानती है,इसी चौराहे पर पहली बार मिले थे नैनभोलू नउआ के रमकलिया से…मेरे गाँव की सड़क ये भी जानती है,गए साल पानी नहीं बरसा था..बूँद-बूँद को हर खेत तरसा था..मेरे गाँव की सड़क जानती है,इस साल किसानों की फिर उम्मीद बँधी है,गाँव की हर आँख आसमान पर लगी है..मेरे गाँव के बीच से, गुज़रती ये टूटी-फूटी सड़क, जानती है दास्ताँ, हर कच्चे-अधपक्के मकान की, हर खेत, हर खलिहान की…

Monday, March 1, 2021

किसी का गुजर जाना बिन वक्त के

कभी कभी लगता है कि जीवन और मौत के बीच हम सब कितनी जल्दी में सबकुछ हासिल करने की जुगत में लगे रहते हैं। हर दिन हम सब अगले दिन के लिए मेहनत करते हैं और एक दिन ऐसा भी आता है जब हम उस अगले दिन के लिए बचे नहीं रहते हैं। हमारा किरदार अपना काम कर किसी दूसरी यात्रा पर चला जाता है। 

एक अधूरापन, कुछ बाकी काम, ढेर सारे सपने, अपने लोगों की आशाएं - उम्मीद...कुछ पाने की इच्छा, किसी के प्रति स्नेह, मोह, गुस्सा, कुछ खरीदने की, कुछ नया बनाने की...यह सब बीच में ही छोड़कर हम चले जाते हैं। एक सांस की डोर टूटती है और हमारी दूसरी यात्रा की टिकट कन्फर्म हो जाती है।
लेकिन इन सबके बीच गुजर गए शख्स की स्मृति हमारे पास रह जाती है। ऐसी ही एक अधूरी सी कहानी पार्थ की है। 
कानपुर का यह लड़का रेडियो, प्रिंट, डिजिटल सब जगह खुद को बिखेरे हुए था। हाल ही में द बेटर इंडिया के डिजिटल स्पेस पर हम टकराए थे।

सौम्य था, व्यवहारिक था, शब्द से संजीदा तरीके से खेलता था। हम दोनों लेखन में एक दूसरे की गलतियों पर बात करते थे। मेरी कॉपी में कहां कुछ गलतियां रह जाती है, उसे पता था। बिंदु, चंद्र बिंदु हो या फिर कहानियों में मात्राओं का खेल, वह बेहतर तरीके से उसमें रच बस जाना चाहता था।
अचानक एक दोपहर जब गांव में था, मानबी कटोच  जी का मैसेज आता है - पार्थ इज नो मोर..." कुछ पल के लिए ठहर जाता हूं कि यह क्या! अभी तो पार्थ की कहानी शुरू ही हुई थी, उसे तो अभी बहुत कुछ करना था। लेकिन सच तो सच होता है।

हर दिन सुबह हमारी बातचीत होती थी, एक वेबसाइट को कंटेंट के तौर पर किस तरह समृद्ध बनाया जाए, गलतियां कम हो, हेडिंग आकर्षक हो, इन्हीं सब के आसपास हमारी बात होती थी। हम एक बेहतर स्टाईल शीट पर गुफ्तगू किया करते थे। मानबी जी ने आजादी दी है कि काम अच्छा हो, इसके लिए हम खूब बात करें।

कुछ दिन पहले पार्थ ने पूछा था, अनायास ही कि  देवरिया से दार्जिलिंग की दूरी कितनी है?  दरअसल उसे पहाड़ से लगाव था। शायद ऊंचाई से वह बहुत कुछ देखना चाहता था।
 फिर इस बातचीत के दो दिन तक हमारी बात नहीं हुई, शायद काम में ज्यादा व्यस्त हो गया था, वह वीडियो आदि भी बनाया करता था।

 वह मेरे मन में बस गए शहर कानपुर का था। मैं उससे अक्सर कानपुर के मोहल्लों के बारे पूछता रहता था। ग्रीन पार्क, सिविल लाइंस हो या फिर डी ए वी कालेज हो या हो परमठ मन्दिर , इन सबकी खबर उससे लिया करता था। कुछ अलग ही लगता था कानपुर हमें। हम भी इस दौरान Msc के छात्र थे 
डी ए वी कालेज के। वो इक ऐसा समय और शहर था, जिसकी यादें जेहन में गुंजती रहतीं हैं 
मुझे दक्षिण भारत के एक शहर के कॉलोनी के नाम की वर्तनी को लेकर कनफ्यूजन था, बात करने के लिए फोन किया तो मोबाईल नेटवर्क एरिया से बाहर बताने लगा, सोचा कल बात करेंगे।
लेकिन कल की कहानी ही बदल गई। पता नहीं उस लड़के को किस चीज की हड़बड़ी थी! ऐसी भी क्या जल्दी थी कि वह दूर ही निकल गया।

मैं उसके निजी जीवन से ज्यादा नजदीक नहीं था लेकिन उसकी बातचीत से इस बात को जरूर महसूस करता था कि वह बेफिक्र है। बस इतना ही....
इन दिनों उसकी छवि मन में बस गई है, किसी फोटो फ्रेम की तरह। सचमुच, भाग्य चिड़िया बड़ी निठुर होती है....
हर सुबह लैपटॉप ऑन कर मेल चेक करते हुए लगता है, काश !
 मेल बॉक्स में यह लिखा मिल जाए -