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Friday, March 29, 2019

यह इंसान क्यों मिलता है




दूसरा कदम

रिश्तों के बीच रुपएपैसों का झगड़ा आ जाए तो व्यक्ति को अपने बढ़े कदम रोकने ही पड़ते हैं. पर यह कैसी धरोहर सौंपी जाती है पुरानी पीढ़ी को? वीनू ने सालों बाद मिले चाचा से यह सवाल उठाया तो सब अवाक रह गए.


कैसा जमाना आ गया है. यदि कोई प्यार से मिलता है और बारबार मिलना चाहता है तो पता नहीं क्यों हमारी छठी इंद्री हमें यह संकेत देने लगती है कि सामने वाले पर शक किया जाए. यह इंसान क्यों मिलता है? और फिर इतने प्यार से मिलता है कि शक तो होगा ही. वैसे हमारे पास ऐसा है ही क्या जिस पर किसी की नजर हो. एक मध्यमवर्गीय परिवार के पास ऐसी कोई दौलत नहीं हो सकती जिसे कोई चुरा ले जाए. बस, किसी तरह चादर में पैर समेटे अपना जीवन और उस की जरूरतें पूरी कर लेता है एक आम मध्यमवर्गीय मानस. पार्क में सुबह टहलने जाता हूं तो एक 26-27 साल का लड़का हर दिन मिलता है. जौगिंग करता आता है और पास आ कर यों देखने लगता है मानो मेरा ही इंतजार था उसे.
‘‘कैसे हैं आप, कल आप आए नहीं? मैं इंतजार करता रहा.’’
‘‘क्यों?’’ सहसा मुंह से निकल गया और साथ ही अपने शब्दों की कठोरता पर स्वयं ही क्रोध भी आया मुझे.
‘‘नहीं, कोई खास काम भी नहीं था. हां, रोज आप को देखता हूं न. आप अच्छे लगते हैं और सच कहूं तो आप को देख कर दिन अच्छा बीत जाता है.’’
वह भी अपने ही शब्दों पर जरा सा झेंप गया था.
पार्क से आने के बाद पत्नी से बात की तो कहने लगी, ‘‘आप बैंक में ऊंचे पद पर काम करते हैं. कोई कर्जवर्ज उसे लेना होगा इसीलिए जानपहचान बढ़ाना चाहता होगा.’’
‘‘हो सकता है कोई वजह होगी. ऐसा भी होता है क्या कि किसी का चेहरा देख कर दिन अच्छा बीते. अजीब लगता है मुझे उस का व्यवहार. बेकार की चापलूसी.’’
‘‘आप को देख कर कोई खुश होता है तो इस से भला आप को क्या तकलीफ है,’’ पत्नी बोली, ‘‘आप की सूरत देख कर उस का दिन अच्छा निकलता है तो इस का मतलब आप की सूरत किसी की खुशी का कारण है.’’
‘‘हद हो गई, तुम भी ऐसी ही सिरफिरी बातें करने लगी हो.’’
‘‘कई बातें हर तर्कवितर्क से परे होती हैं श्रीमान. बिना वजह आप उसे अच्छे लगते हैं. अगर बिना वजह बुरे लगने लगते तो आप क्या कर लेते. घटना को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखना चाहिए. बिना वजह प्यार से कैसा डर. अच्छी बात है. आप भी उस से दोस्ती कर लीजिए… घर बुलाइए उसे. हमारे बच्चे जैसा ही होगा.’’
‘‘इतना भी छोटा नहीं लगता. हमारे बच्चों से तो उम्र में बड़ा ही है. चलो, छोड़ो किस बखेड़े में पड़ गईं तुम भी.’’
मैं ने पत्नी को टालने का उपक्रम किया, लेकिन पत्नी की बातों की गहराई को पूरी तरह नकार कहां पाया. सच कहती है मेरी पत्नी शुभा. मनोविज्ञान की प्राध्यापिका है न, हर बात को मनोविज्ञान की कसौटी पर ही तोलना उस की आदत है. कहीं न कहीं कुछ तो सच होगा जिसे हम सिर्फ महसूस ही कर पाते हैं.
सच में वह लड़का मुझे देख कर इतना खुश होता है कि उस की आंखों में ठहरा पानी हिलने लगता है. मानो पलकपांवड़े बिछाए वह बस मुझे ही देख लेना चाहता हो. ज्यादा बात नहीं करता. बस, हालचाल पूछ कर चुपचाप लौट जाता है, लेकिन उस का आनाजाना भी धीरेधीरे बहुत अच्छा लगने लगा है. मैं भी जैसे ही पार्क में पैर रखता हूं, मेरी नजरें भी उसे ढूंढ़ने लगती हैं. दूर से ही हाथ हिला कर हंस देना मेरी और उस की दोनों की ही आदत सी बन गई है. शब्दों के बिना हमारे हावभाव बात करते हैं, आंखें बात करती हैं, जिन में अनकहा सा स्नेह और अपनत्व महसूस होने लगा है. एक अनकहा संदेश जो सिर्फ इतना सा है कि आप मुझे बहुत अच्छे लगते हैं. शुभा अकसर मुझे समझाती रहती है,
‘‘चिंता करना अच्छी बात है,
 क्योंकि अगर हमें हर काम ठीक ढंग से करना है तो जरा सी चिंता करना जरूरी है, इतनी जितनी हम सब्जी में हींग डालते हैं. आप तो इतनी चिंता करते हो जितनी चाय में दूध, पत्ती और चीनी.’’
‘‘तुम्हारे कहने का अर्थ मैं यह निकालूं कि मैं काम कम और चिंता ज्यादा करता हूं. शौक है मुझे चिंता करने का.’’
‘‘जी हां, चिंता को ओढ़ लेना आप को अच्छा लगता है जबकि सच यह है कि जिस काम की आप चिंता कर रहे होते हैं वह चिंता लायक होता ही नहीं. अब कोई प्यार से मिल रहा है तो उस की भी चिंता. जरा सोचिए, इस की कैसी चिंता.’’
मेरी सैर अभी शुरू ही होती थी और उस की समाप्त हो जाती. पार्क के बाहर खड़ी साइकिल उठा कर वह हाथ हिलाता हुआ चला जाता. जहां तक मुझे इंसान की पहचान है, इतना कह सकता हूं कि वह अच्छे घर का लगता है.
मेरे दोनों बेटे बेंगलुरु में पढ़ाई करते हैं. उन के बिना घर खालीखाली लगता है और अकसर उसे देख कर उन की याद आती है. एक सुबह पार्क में सैर करना अभी शुरू ही किया था कि पता नहीं चला कैसे पैर में मोच आ गई. वह मुझे संभालने के लिए बिजली की गति से चला आया था.
‘‘क्या हुआ सर? जरा संभल कर. आइए, यहां बैठ जाइए.’’
उस बच्चे ने मुझे बिठा कर मेरा पैर सीधा किया. थोड़ी देर दबाता रहा.
‘‘आज सैर रहने दीजिए. चलिए, आप को आप के घर छोड़ आऊं.’’
संयोग ऐसा बन जाएगा किस ने सोचा था. पैर में मोच का आना उसे हमारे घर तक ले आया. शुभा हम दोनों को देख कर पहले तो घबराई फिर सदा की तरह सहज भाव में बोली, ‘‘हर पीड़ा के पीछे कोई खुशी होती है. मोच आई तो तुम भी हमारे घर पर आए. रोज तुम्हारी बातें करते हैं हम,’’ मुझे बिठाते हुए शुभा ने बात शुरू की तो वह भी हंस पड़ा.
बातों से पता चला कि वह भी जम्मू का रहने वाला है. हमारे बीच बातों का सिलसिला चला तो दूर तक…हमारे घर तक…हमारे अपने परिवार तक. हमारा परिवार जिस से आज मेरा कोई वास्ता नहीं है. मैं आज दिल्ली में रह रहा हूं.
‘‘जम्मू में आप का घर किस महल्ले में है, सर?’’
मैं बात को टालना चाहता था. मेरी एक दुखती रग है मेरा घर, मेरा जम्मू वाला घर, जिस पर अनायास उस का हाथ जो पड़ गया था. बड़े भाई को लगता था मैं उन का हिस्सा खा जाऊंगा और मुझे लगता था घर में मेरी बातबात पर बेइज्जती होती है. जब भी मैं घर जाता था मेरी मां को भी ऐसा ही लगता था कि शायद मैं अपना हिस्सा ही मांगने चला आया हूं. हम जब भी घर जाते तो मां शुभा पर यों बरस पड़ती थीं मानो सारा दोष उस का ही हो. मेहमान की तरह साल में हमारा 4 दिन जम्मू जाना भी उन्हें भारी लगता. भाईसाहब से मिले सालों बीत चुके हैं. उन का बड़ा लड़का सुना है मुंबई में किसी कंपनी में काम करता है और लड़की की शादी हो गई. किसी ने बुलाया नहीं. हम गए नहीं. जम्मू में है कौन जिस का नाम लूं अब.
‘‘सर, जम्मू में आप का घर कहां है? आप के भाईबहन तो होंगे न? क्या आप उन के पास भी नहीं जाते?’’
‘‘नहीं जाते बेटा, ऐसा है न… कभीकभी कुछ सह लेने की ताकत ही नहीं रहती. जब लगा घर जा कर न घर वालों को सुख दे पाऊंगा न अपनेआप को, तब जाना ही छोड़ दिया. मैं भी खुश और घर वाले भी खुश…
‘‘…अब तो मुझे किसी की सूरत भी याद नहीं. भाईसाहब के बच्चे सड़क पर ही मिल जाएं तो मैं पहचान भी नहीं सकता. उन के नाम तक नहीं मालूम. जम्मू का नाम भी मैं लेना नहीं चाहता. तकलीफ सी होती है. तुम जम्मू से हो शायद इसीलिए अपने से लगते हो. मिट्टी का रिश्ता है इसीलिए तुम्हें मैं अच्छा लगा और मुझे तुम.’’
‘‘आप के बच्चे कहां हैं?’’ वह बोला.
‘‘2 जुड़वां बेटे हैं. दोनों बेंगलुरु में एमबीए कर रहे हैं. इस साल वे पढ़ाई पूरी कर लेंगे. देखते हैं नौकरी कहां मिलती है.’’
‘‘तुम कहां रहते हो बेटा? क्या काम करते हो?’’
‘‘मैं भी एमबीए हूं. अभी कुछ दिन पहले ही मुंबई से ट्रांसफर हो कर दिल्ली आया हूं, राजौरी गार्डन में हमारी कंपनी का गैस्टहाउस है. 3 महीने का प्रोजैक्ट है मेरा.’’
‘‘मेरे बड़े भाई का बेटा भी वहीं है. अब क्या नाम है यह तो पता नहीं पर बचपन में उसे वीनू कहा करते थे.’’
‘‘आप उस की कंपनी का पता और नाम बता दें.’’
‘‘इतना सब पता किसे है. अपना ही बच्चा है पर मैं उसे पहचान भी नहीं सकता. अफसोस होता है मुझे कि हम अपने बच्चों को क्या विरासत दे कर जाएंगे. मेरे दोनों बेटे अपने उस भाई को नहीं पहचानते. बहन की सूरत कैसी है, नहीं पता. आज हम अपने पड़ोसी की परवा नहीं करेंगे तो कल वह भी मेरे काम नहीं आएगा. इस हाथ दे उस हाथ ले की तर्ज पर बड़ा अच्छा निबाह कर लेते हैं क्योंकि हमारी हार्दिक इच्छा होती है उस से निभाने की. दोस्त के साथ भी हमारा साथ लंबा चलता है.
‘‘एक भाई के साथ ही झगड़ा, भाई प्यार भी करे तो दुश्मन लगे. भाई की हमदर्दी भी शक के घेरे में, भाई का ईमान भी धोखा. सिर्फ इसलिए कि वह जमीनजायदाद में हिस्सेदार होता है.’’
‘‘आप फिर से वही सब ले कर बैठ गए,’’ शुभा बोली, ‘‘भाई की बेटी की शादी में न जाने का फैसला तो आप का ही था न.’’
‘‘भाई ने बुलाया नहीं. मैं ने फोन पर बात करनी चाही तो भी जलीकटी सुना दी. क्या करने जाता वहां.’’
‘‘चलो, अब छोड़ो इस किस्से को.’’
‘‘यही तो समस्या है आप लोगों की कि किसी भी समस्या को सुलझा लेना तो आप चाहते ही नहीं हैं. हाथ पकड़ कर भाई से पूछते तो सही कि क्यों नाराज हैं? क्या बिगाड़ा है आप ने उन का? अपनाअपना खानापीना, दूरदूर रहना, न कुछ लेना न कुछ देना फिर भी नाराजगी,’’ इतना कह कर वह लड़का बारीबारी से हम दोनों का चेहरा पढ़ रहा था.
‘‘अब टैंशन ले कर मत बैठ जाना,’’ शुभा बोली थी.
‘‘कोई तमाशा न हो इसीलिए तो जम्मू को छोड़ दिया. मेरी इच्छा तमाशा करने की कभी नहीं रही.’’
शुभा ने किसी तरह बात को टालने का प्रयास किया, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है, बेटा?’’
वह लड़का एकटक हमें निहार रहा था. आंखों में झिलमिल करता पानी जैसे लबालब कटोरों में से छलकने ही वाला हो.
‘‘चाची, मेरा नाम आज भी वीनू ही है. मैं सोनूमोनू का बड़ा भाई हूं. मैं आप का अपना ही हूं. आप के घर का झगड़ा सिर्फ आप के घर का झगड़ा नहीं है. मेरे घर का भी है.’’
ऐसा लगा मानो पवन का ठंडा झोंका हमारे घर में चला आया और हर कोने में समा गया.
‘‘आप हार गए चाचू, इतने दिन से मुझे देख रहे हैं, पर अपना खून आप से पहचाना नहीं गया. सच कहा आप ने अभीअभी. यह कैसी विरासत दे कर जा रहे हैं आप सोनूमोनू को और मुझे. मेरी तो यही कामना है कि पापा और आप लाख वर्ष जिएं, लेकिन जिस दिन आप की अरथी उठानी पड़ी सोनूमोनू तो 2 भाई हैं किसी तरह उठा कर श्मशान तक ले ही जाएंगे पर ऐसी स्थिति में मैं अकेला क्या करूंगा, चाचू. कैसे मैं अकेला पापा की अरथी को खींच पाऊंगा. क्या करूंगा? ये कैसे बीज बो दिए हैं हमारे बुजुर्गों ने जिस की फसल हमें काटनी पड़ेगी.’’
फफकफफक कर रोने लगा वह लड़का. शुभा और मैं यों खड़े थे मानो पैरों के नीचे जमीन ही नहीं रही. विश्वास नहीं हो रहा था हमें कि 6 फुट का यह लंबाचौड़ा प्यारा सा नौजवान मेरा ही खून है जिसे मैं पहचान ही नहीं पाया.
बचपन में यह मुझे घोड़ा बना कर मेरी सवारी किया करता था. आज वास्तव में यह दावा कर सकता है कि मेरा खून भी उस के पिता के खून की तरह सफेद हो चुका है. अगर मेरा खून लाल होता तो मैं अपने बच्चे को पहचान नहीं जाता.
शुभा ने हाथ बढ़ाया तो वीनू उस की गोद में समा कर यों रोने लगा मानो अभी भी 4-5 साल का ही हो. हमारे बच्चे तो शादी के 5 साल बाद जन्मे थे, तब तक वीनू ही तो शुभा का खिलौना था.
‘‘चाची, आप ने भी नहीं पहचाना.’’
क्या कहती शुभा. वीनू का माथा बारबार चूमते हुए उस के आंसू पोंछती रही. क्या उत्तर है शुभा के पास और क्या उत्तर है मेरे पास. जम्मू में 4 कमरों का एक छोटा सा हमारा घर है, जिस पर मैं ने अपना अधिकार छोड़ दिया था और भाई ने उसे कस कर पकड़ लिया था. सोचा जाए तो उस के बाद क्या हुआ. क्या मैं सुखी हो पाया? या भाईसाहब खुश रहे. हाथ तो कुछ नहीं आया. हां, बच्चे जरूर दूरदूर हो गए जो आज हम से प्रश्न कर रहे हैं. सच ही तो पूछ रहे हैं. मकान में कुछ हजार का हिस्सा छोड़ कर क्याक्या छोड़ दिया. लाखोंकरोड़ों से भी महंगा हमारा रिश्ता, हमारा पारिवारिक स्नेह.
पास जा कर मैं ने उसे थपथपाया. देर तक हमारे गिलेशिकवों और शिकायतों का दौर चला. ऐसा लगा सारा संताप चला गया. शुभा ने वीनू की पसंद का नाश्ता बनाया. हमारे घर ही नहायाधोया वीनू और मेरा पाजामाकुरता पहना.
‘‘चाचू, देखो, मैं बड़ा हो गया हूं और आप छोटे,’’ कुरतापाजामा पहन वीनू हंसने लगा.
‘‘बच्चे समझदार हो जाएं तो मांबाप को छोटा बन कर भी खुशी होती है. मेरा तो यह सोचना है कि बेटा अगर कपूत है तो क्यों उस के लिए बचाबचा कर रखना और घर जायदाद को भी किसी के साथ न बांटना. अगर भाईसाहब से मैं ने कुछ नहीं मांगा तो क्या आज सड़क पर बैठा हूं? अपना घर है न मेरा. सोनूमोनू भी अपनाअपना घर बना ही लेंगे, जितनी उन की सामर्थ्य होगी. मैं ने उन्हें भी समझा दिया है. पीछे मुड़ कर मत देखना कि पिता के पास क्या है?
‘‘पिता की दो कौडि़यों के लिए अपना रिश्ता कभी कड़वा मत करना. रुपयों का क्या है, आज इस हाथ कल उस हाथ. जो चीज एक जगह कभी टिकती ही नहीं उस के लिए अपने रिश्तों की बलि दे देना कोरी मूर्खता है. अपनों को छोड़ कर भी हम उन्हें छोड़ पाते हैं ऐसा तो कभी नहीं होता. उन की बुराई ही करने के बहाने हम उन का नाम तो दिनरात जपते हैं. कहां भूला जाता है अपना भाई, अपनी बहन और अपना रूठा रिश्ता. रिश्ते को खोना भी कोई नहीं चाहता और रिश्ते को बचाने के लिए मेहनत भी कोई नहीं करता.’’
मेरे पास आ कर बैठ गया था वीनू. अपलक मुझे निहारने लगा. शुभा का हाथ भी कस कर पकड़ रखा था वीनू ने.
‘‘चाची, अगले महीने मेरी शादी है. आप दोनों के बिना तो होगी नहीं. सोनू व मोनू से भी बात कर चुका हूं मैं, अगले महीने उन के फाइनल हो जाएंगे. यह मैं जानता हूं. शादी उस के बाद ही होगी. अपने भाइयों के बिना क्या मैं अधूरा दूल्हा नहीं लगूंगा.’’
एक और सत्य पर से परदा उठाया वीनू ने. खुशी के मारे हम दोनों की आंखों से आंसू निकल आए. वीनू की आंखें भी भीगी थीं. रोतेरोते हंस पड़ा मैं. भाई साहब द्वारा की गई सारी बेरुखी शून्य में कहीं खो सी गई.
वीनू को कस कर गले से लगा लिया मैं ने. रिश्तों को बचाने के लिए और कितनी मेहनत करेगा यह बच्चा. ताली तो दोनों हाथों से बजती है न. बच्चों के साथ हमें भी तो दूसरा कदम उठाना चाहिए.     

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हिल स्टेशन पर तबादला, Hill station per tabadala

हिल स्टेशन पर तबादला

हिल स्टेशन पर तबादला होने पर भगत राम फूले न समाए. मार्च के मनभावन मौसम का अब उन्हें बेचैनी से इंतजार था. पर मौसम के आते ही उन का सारा उत्साह ऐसा

 ठंड पड़ा कि

विनोद कुशवाहा २९-३-२०१९
 

भगत राम का तबादला एक सुंदर से हिल स्टेशन पर हुआ तो वे खुश हो गए, वे प्रकृति और शांत वातावरण के प्रेमी थे, सो, सोचने लगे, जीवन में कम से कम 4-5 साल तो शहरी भागमभाग, धुएं, घुटन से दूर सुखचैन से बीतेंगे. पहाड़ों की सुंदरता उन्हें इतनी पसंद थी कि हर साल गरमी में 1-2 हफ्ते की छुट्टी ले कर परिवार सहित घूमने के लिए किसी न किसी हिल स्टेशन पर अवश्य ही जाते थे और फिर वर्षभर उस की ताजगी मन में बसाए रखते थे.
तबादला 4-5 वर्षों के लिए होता था. सो, लौटने के बाद ताजगी की जीवनभर ही मन में बसे रहने की उम्मीद थी. दूसरी खुशी यह थी कि उन्हें पदोन्नति दे कर हिल स्टेशन पर भेजा जा रहा था. साहब ने तबादले का आदेश देते हुए बधाई दे कर कहा था, ‘‘अब तो 4 वर्षों तक आनंद ही आनंद लूटोगे. हर साल छुट्टियां और रुपए बरबाद करने की जरूरत भी नहीं रह जाएगी. कभी हमारी भी घूमनेफिरने की इच्छा हुई तो कम से कम एक ठिकाना तो वहां पर रहेगा.’’
‘‘जी हां, आप की जब इच्छा हो, तब चले आइएगा,’’ भगत राम ने आदर के साथ कहा और बाहर आ गए. बाहर साथी भी उन्हें बधाई देने लगे. एक सहकर्मी ने कहा, ‘‘ऐसा सुअवसर तो विरलों को ही मिलता है. लोग तो ऐसी जगह पर एक घंटा बिताने के लिए तरसते हैं, हजारों रुपए खर्च कर डालते हैं. तुम्हें तो यह सुअवसर एक तरह से सरकारी खर्चे पर मिल रहा है, वह भी पूरे 4 वर्षों के लिए.’’
‘‘वहां जा कर हम लोगों को भूल मत जाना. जब सीजन अच्छा हो तो पत्र लिख देना. तुम्हारी कृपा से 1-2 दिनों के लिए हिल स्टेशन का आनंद हम भी लूट लेंगे,’’ दूसरे मित्र ने कहा. ‘‘जरूरजरूर, भला यह भी कोई कहने की बात है,’’ वे सब से यही कहते रहे.
घर लौट कर तबादले की खबर सुनाई तो दोनों बच्चे खुश हो गए. ‘‘बड़ा मजा आएगा. हम ने बर्फ गिरते हुए कभी भी नहीं देखी. आप तो घुमाने केवल गरमी में ले जाते थे. जाड़ों में तो हम कभी गए ही नहीं,’’ बड़ा बेटा खुश होता हुआ बोला.
‘‘जब फिल्मों में बर्फीले पहाड़ दिखाते हैं तो कितना मजा आता है. अब हम वह सब सचमुच में देख सकेंगे,’’ छोटे ने भी ताली बजाई. मगर पत्नी सुजाता कुछ गंभीर सी हो गई. भगत राम को लगा कि उसे शायद तबादले वाली बात रास नहीं आई है. उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है, गुमसुम क्यों हो गई हो?’’
‘‘तबादला ही कराना था तो आसपास के किसी शहर में करा लेते. सुबह जा कर शाम को आराम से घर लौट आते, जैसे दूसरे कई लोग करते हैं. अब पूरा सामान समेट कर दोबारा से वहां गृहस्थी जमानी पड़ेगी. पता नहीं, वहां का वातावरण हमें रास आएगा भी या नहीं,’’ सुजाता ने अपनी शंका जताई. ‘‘सब ठीक हो जाएगा. मकान तो सरकारी मिलेगा, इसलिए कोई दिक्कत नहीं होगी. और फिर, पहाड़ों में भी लोग रहते हैं. जैसे वे सब रहते हैं वैसे ही हम भी रह लेंगे.’’
‘‘लेकिन सुना है, पहाड़ी शहरों में बहुत सारी परेशानियां होती हैं-स्कूल की, अस्पताल की, यातायात की और बाजारों में शहरों की तरह हर चीज नहीं मिल पाती,’’ सुजाता बोली.
भगत राम हंस पड़े, ‘‘किस युग की बातें कर रही हो. आज के पहाड़ी शहर मैदानी शहरों से किसी भी तरह से कम नहीं हैं. दूरदराज के इलाकों में वह बात हो सकती है, लेकिन मेरा तबादला एक अच्छे शहर में हुआ है. वहां स्कूल, अस्पताल जैसी सारी सुविधाएं हैं. आजकल तो बड़ेबड़े करोड़पति लाखों रुपए खर्च कर के अपनी संतानों को मसूरी और शिमला के स्कूलों में पढ़ाते हैं. कारण, वहां का वातावरण बड़ा ही शांत है. हमें तो यह मौका एक तरह से मुफ्त ही मिल रहा है.’’ ‘‘उन्नति होने पर तबादला तो होता ही है. अगर तबादला रुकवाने की कोशिश करूंगा तो कई पापड़ बेलने पड़ेंगे. हो सकता है 10-20 हजार रुपए की भेंटपूजा भी करनी पड़ जाए और उस पर भी आसपास की कोई सड़ीगली जगह ही मिल पाए. इस से तो अच्छा है, हिल स्टेशन का ही आनंद उठाया जाए.’’
यह सुन कर सुजाता ने फिर कुछ न कहा. दफ्तर से विदाई ले कर भगत राम पहले एक चक्कर अकेले ही अपने नियुक्तिस्थल का लगा आए और
15 दिनों बाद उन का पूरा परिवार वहां पहुंच गया. बच्चे काफी खुश थे. शुरूशुरू की छोटीमोटी परेशानी के बाद जीवन पटरी पर आ ही गया. अगस्त के महीने में ही वहां पर अच्छीखासी ठंड हो गई थी. अभी से धूप में गरमी न रही थी. जाड़ों की ठंड कैसी होगी, इसी प्रतीक्षा में दिन बीतने लगे थे.
फरवरी तक के दिन रजाई और अंगीठी के सहारे ही बीते, फिर भी सबकुछ अच्छा था. सब के गालों पर लाली आ गई थी. बच्चों का स्नोफौल देखने का सपना भी पूरा हो गया. मार्च में मौसम सुहावना हो गया था. अगले 4 महीने के मनभावन मौसम की कल्पना से भगत राम का मन असीम उत्साह से भर गया था. उसी उत्साह में वे एक सुबह दफ्तर पहुंचे तो प्रधान कार्यालय का ‘अत्यंत आवश्यक’ मुहर वाला पत्र मेज पर पड़ा था.
उन्होंने पत्र पढ़ा, जिस में पूछा गया था कि ‘सीजन कब आरंभ हो रहा है, लौटती डाक से सूचित करें. विभाग के निदेशक महोदय सपरिवार आप के पास घूमने आना चाहते हैं.’ सीजन की घोषणा प्रशासन द्वारा अप्रैल मध्य में की जाती थी, सो, भगत राम ने वही सूचना भिजवा दी, जिस के उत्तर में एक सप्ताह में ही तार आ गया कि निदेशक महोदय 15 तारीख को पहुंच रहे हैं. उन के रहने आदि की व्यवस्था हो जानी चाहिए.
निदेशक के आने की बात सुन कर सारे दफ्तर में हड़कंप सा मच गया. ‘‘यही तो मुसीबत है इस हिल स्टेशन की, सीजन शुरू हुआ नहीं, कि अधिकारियों का तांता लग जाता है. अब पूरे 4 महीने इसी तरह से नाक में दम बना रहेगा,’’ एक पुराना चपरासी बोल पड़ा.
भगत राम वहां के प्रभारी थे. सारा प्रबंध करने का उत्तरदायित्व एक प्रकार से उन्हीं का था. उन का पहला अनुभव था, इसलिए समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे और क्या किया जाए.
सारे स्टाफ की एक बैठक बुला कर उन्होंने विचारविमर्श किया. जो पुराने थे, उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर राय भी दे डालीं. ‘‘सब से पहले तो गैस्टहाउस बुक करा लीजिए. यहां केवल 2 गैस्टहाउस हैं. अगर किसी और ने बुक करवा लिए तो होटल की शरण लेनी पड़ेगी. बाद में निदेशक साहब जहांजहां भी घूमना चाहेंगे, आप बारीबारी से हमारी ड्यूटी लगा दीजिएगा. आप को तो सुबह 7 बजे से रात 10 बजे तक उन के साथ ही रहना पड़ेगा,’’ एक कर्मचारी ने कहा तो भगत राम ने तुरंत गैस्टहाउस की ओर दौड़ लगा दी.
जो गैस्टहाउस नगर के बीचोंबीच था, वहां काम बन नहीं पाया. दूसरा गैस्टहाउस नगर से बाहर 2 किलोमीटर की दूरी पर जंगल में बना हुआ था. वहां के प्रबंधक ने कहा, ‘‘बुक तो हो जाएगा साहब, लेकिन अगर इस बीच कोई मंत्रीवंत्री आ गया तो खाली करना पड़ सकता है. वैसे तो मंत्री लोग यहां जंगल में आ कर रहना पसंद नहीं करते, लेकिन किसी के मूड का क्या भरोसा. यहां अभी सिर्फ 4 कमरे हैं, आप को कितने चाहिए?’’ भगत राम समझ नहीं पाए कि कितने कमरे लेने चाहिए. साथ गए चपरासी ने उन्हें चुप देख कर तुरंत राय दी, ‘‘कमरे तो चारों लेने पड़ेंगे, क्या पता साहब के साथ कितने लोग आ जाएं, सपरिवार आने के लिए लिखा है न?’’
भगत राम को भी यही ठीक लगा. सो, उन्होंने पूरा गैस्टहाउस बुक कर दिया. ठीक 15 अप्रैल को निदेशक महोदय का काफिला वहां पहुंच गया. परिवार के नाम पर अच्छीखासी फौज उन के साथ थी. बेटा, बेटी, दामाद और साले साहब भी अपने बच्चों सहित पधारे थे. साथ में 2 छोटे अधिकारी और एक अरदली भी था.
सुबह 11 बजे उन की रेल 60 किलोमीटर की दूरी वाले शहर में पहुंची थी. भगत राम उन का स्वागत करने टैक्सी ले कर वहीं पहुंच गए थे. मेहमानों की संख्या ज्यादा देखी तो वहीं खड़ेखड़े एक मैटाडोर और बुक करवा ली. शाम 4 बजे वे सब गैस्टहाउस पहुंचे. निदेशक साहब की इच्छा आराम करने की थी, लेकिन भगत राम का आराम उसी क्षण से हराम हो गया था.
‘‘रहने के लिए बाजार में कोई ढंग की जगह नहीं थी क्या? लेकिन चलो, हमें कौन सा यहां स्थायी रूप से रहना है. खाने का प्रबंध ठीक हो जाना चाहिए,’’ निदेशक महोदय की पत्नी ने गैस्टहाउस पहुंचते ही मुंह बना कर कहा. उन की यह बात कुछ ही क्षणों में आदेश बन कर भगत राम के कानों में पहुंच गई थी. खाने की सूची में सभी की पसंद और नापंसद का ध्यान रखा गया था. भगत राम अपनी देखरेख में सारा प्रबंध करवाने में जुट गए थे. रहीसही कसर अरदली ने पूरी कर दी थी. वह बिना किसी संकोच के भगत राम के पास आ कर बोला, ‘‘व्हिस्की अगर अच्छी हो तो खाना कैसा भी हो, चल जाता है. साहब अपने साले के साथ और उन का बेटा अपने बहनोई के साथ 2-2 पेग तो लेंगे ही. बहती गंगा में साथ आए साहब लोग भी हाथ धो लेंगे. रही बात मेरी, तो मैं तो देसी से भी काम चला लूंगा.’’
भगत राम कभी शराब के आसपास भी नहीं फटके थे, लेकिन उस दिन उन्हें अच्छी और खराब व्हिस्कियों के नाम व भाव, दोनों पता चल गए थे.
गैस्टहाउस से घर जाने की फुरसत भगत राम को रात 10 बजे ही मिल पाई, वह भी सुबह 7 बजे फिर से हाजिर हो जाने की शर्त पर. निदेशक साहब ने 10 दिनों तक सैरसपाटा किया और हर दिन यही सिलसिला चलता रहा. भगत राम की हैसियत निदेशक साहब के अरदली के अरदली जैसी हो कर रह गई.
निदेशक साहब गए तो उन्होंने राहत की सांस ली. मगर जो खर्च हुआ था, उस की भरपाई कहां से होगी, यह समझ नहीं पा रहे थे. दफ्तर में दूसरे कर्मचारियों से बात की तो तुरंत ही परंपरा का पता चल गया.
‘‘खर्च तो दफ्तर ही देगा, साहब, मरम्मत और पुताईरंगाई जैसे खर्चों के बिल बनाने पड़ेंगे. हर साल यही होता है,’’ एक कर्मचारी ने बताया. दफ्तर की हालत तो ऐसी थी जैसी किसी कबाड़ी की दुकान की होती है, लेकिन साफसफाई के बिलों का भुगतान वास्तव में ही नियमितरूप से हो रहा था. भगत राम ने भी वही किया, फिर भी अनुभव की कमी के कारण 2 हजार रुपए का गच्चा खा ही गए.
निदेशक का दौरा सकुशल निबट जाने का संतोष लिए वे घर लौटे तो पाया कि साले साहब सपरिवार पधारे हुए हैं. ‘‘जिस दिन आप के ट्रांसफर की बात सुनी, उसी दिन सोच लिया था कि इस बार गरमी में इधर ही आएंगे. एक हफ्ते की छुट्टी मिल ही गई है,’’ साले साहब खुशी के साथ बोले.
भगत राम की इच्छा आराम करने की थी, मगर कह नहीं सके. जीजा, साले का रिश्ता वैसे भी बड़ा नाजुक होता है. ‘‘अच्छा किया, साले साहब आप ने. मिलनेजुलने तो वैसे भी कभीकभी आते रहना चाहिए,’’ भगत राम ने केवल इतना ही कहा.
साले साहब के अनुरोध पर उन्हें दफ्तर से 3 दिनों की छुट्टी लेनी पड़ी और गाइड बन कर उन्हें घुमाना भी पड़ा. छुट्टियां तो शायद और भी लेनी पड़ जातीं, मगर बीच में ही बदहवासी की हालत में दौड़ता हुआ दफ्तर का चपरासी आ गया. उस ने बताया कि दफ्तर में औडिट पार्टी आ गई है, अब उन के लिए सारा प्रबंध करना है.
सुनते ही भगत राम तुरंत दफ्तर पहुंच गए और औडिट पार्टी की सेवाटहल में जुट गए. साले साहब 3 दिनों बाद ‘सारी खुदाई एक तरफ…’ वाली कहावत को चरितार्थ कर के चले गए, मगर औडिट पार्टी के सदस्यों का व्यवहार भी सगे सालों से कुछ कम न था. दफ्तर का औडिट तो एक दिनों में ही खत्म हो गया था लेकिन पूरे हिल स्टेशन का औडिट करने में एक सप्ताह से भी अधिक का समय लग गया.
औडिट चल ही रहा था कि दूर की मौसी का लड़का अपनी गर्लफ्रैंड सहित घर पर आ धमका. जब तक भगत राम मैदानी क्षेत्र के दफ्तर में नियुक्त थे, उस के दर्शन नहीं होते थे, लेकिन अचानक ही वह सब से सगा लगने लगा था. एक हफ्ते तक वह भी बड़े अधिकारपूर्वक घर में डेरा जमाए रहा. औडिट पार्टी भगत राम को निचोड़ कर गई तो किसी दूसरे वरिष्ठ अधिकारी के पधारने की सूचना आ गई.
‘‘समझ में नहीं आता कि यह सिलसिला कब तक चलेगा?’’ भगत राम बड़बड़ाए. ‘‘जब तक सीजन चलेगा,’’ एक कर्मचारी ने बता दिया.
भगत राम ने अपना सिर दोनों हाथों से थाम लिया. घर पर जा कर भी सिर हाथों से हट न पाया क्योंकि वहां फूफाजी आए हुए थे. बाद में दूसरे अवसर पर तो बेचारे चाह कर भी ठीक से मुसकरा तक नहीं पाए थे, जब घर में दूर के एक रिश्तेदार का बेटा हनीमून मनाने चला आया था.
उसी समय सुजाता की एक रिश्तेदार महिला भी पति व बच्चों सहित आ गई थी. और अचानक उन के दफ्तर के एक पुराने साथी को भी प्रकृतिप्रेम उमड़ आया था. भगत राम को रजाईगद्दे किराए पर मंगाने पड़ गए थे. वे खुद तो गाइड की नौकरी कर ही रहे थे, पत्नी को भी आया की नौकरी करनी पड़ गई थी. सुजाता की रिश्तेदार अपने पति के साथ प्रकृति का नजारा लेने के लिए अपने छोटेछोटे बच्चों को घर पर ही छोड़ जाया करती थी.
उधर, दफ्तर में भी यही हाल था. एक अधिकारी से निबटते ही दूसरे अधिकारी के दौरे की सूचना आ जाती थी. शांति की तलाश में भगत राम दफ्तर में आ जाते थे और फिर दफ्तर से घर में. लेकिन मानसिक शांति के साथसाथ आर्थिक शांति भी छिन्नभिन्न हो गई थी. 4 महीने कब गुजर गए, कुछ पता ही न चला. हां, 2 बातों का ज्ञान भगत राम को अवश्य हो गया था. एक तो यह कि दफ्तर के कुल कितने बड़ेबड़े अधिकारी हैं और दूसरी यह कि दुनिया में उन के रिश्तेदार और अभिन्न मित्रों की कोई कमी नहीं है.
‘‘सच पूछिए तो यहां रहने का मजा ही आ गया…जाने की इच्छा ही नहीं हो रही है, लेकिन छुट्टियां इतनी ही थीं, इसलिए जाना ही पड़ेगा. अगले साल जरूर फुरसत से आएंगे.’’ रिश्तेदार और मित्र यही कह कर विदा ले रहे थे. उन की फिर आने की धमकी से भगत राम बुरी तरह से विचलित होते जा रहे थे. ‘‘क्योंजी, अगले साल भी यही सब होगा क्या?’’ सुजाता ने पूछा. शायद वह भी विचलित थी.
‘‘बिलकुल नहीं,’’ भगत राम निर्णायक स्वर में चीख से पड़े, ‘‘मैं आज ही तबादले का आवदेन भिजवाए देता हूं. यहां से तबादला करवा कर ही रहूंगा, चाहे 10-20 हजार रुपए खर्च ही क्यों न करने पड़ें.’’ ?सुजाता ने कुछ न कहा. भगत राम तबादले का आवेदनपत्र भेजने के लिए दफ्तर की ओर चल पड़े. https://afewthingstomydairy.blogspot.com/2019/03/blog-post_67.html

हार कर बैठ जाना समस्या का समाधान नहीं




और दीप जल उठे : अरुणा ने आखिर क्यों कस ली थी कमर

विनोद कुशवाहा  २९-३-२०१९

हार कर बैठ जाना समस्या का समाधान नहीं, इसी सोच के साथ अरुणा ने कमर कस ली थी कि मम्मीजी के इलाज में वह कोई कोरकसर नहीं छोड़ेगी, लेकिन नतीजा क्या निकला?


ट्रिनट्रिन…फोन की घंटी बजते ही हम फोन की तरफ झपट पड़े. फोन पति ने उठाया. दूसरी ओर से भाईसाहब बात कर रहे थे. रिसीवर उठाए राजेश खामोशी से बात सुन रहे थे. अचानक भयमिश्रित स्वर में बोले, ‘‘कैंसर…’’ इस के बाद रिसीवर उन के हाथ में ही रह गया, वे पस्त हो सोफे पर बैठ गए. तो वही हुआ जिस का डर था. मां को कैंसर है. नहीं, नहीं, यह कोई बुरा सपना है. ऐसा कैसे हो सकता है? वे तो एकदम स्वस्थ थीं. उन्हें कैंसर हो ही नहीं सकता. एक मिनट में ही दिमाग में न जाने कैसेकैसे विचार तूफान मचाने लगे थे. 2 दिनों से जिन रिपोर्टों के परिणाम का इंतजार था आज अचानक ही वह काला सच बन कर सामने आ चुका था.
‘‘अब क्या होगा?’’ नैराश्य के स्वर में राजेश के मुंह से बोल फूटे. विचारों के भंवर से निकल कर मैं भी जैसे यह सुन कर अंदर ही अंदर सहम गई. ‘भाईसाहब से क्या बात हुई,’ यह जानने की उत्सुकता थी. औचक मैं चिल्ला पड़ी, ‘‘क्या हुआ मां को?’’ बच्चे भी यह सुन कर पास आ गए. राजेश का गला सूख गया. उन के मुंह से अब आवाज नहीं निकल रही थी. मैं दौड़ कर रसोई से एक गिलास पानी लाई और उन की पीठ सहलाते, उन्हें सांत्वना देते हुए पानी का गिलास उन्हें थमा दिया. पानी पी कर वे संयत होने का प्रयास करते हुए धीमी आवाज में बोले, ‘‘अरुणा, मां की जांच रिपोर्ट्स आ गई हैं. मां को स्तन कैंसर है,’’ कहते हुए वे फफकफफक कर बच्चों की तरह रोने लगे. हम सभी किंकर्तव्यविमूढ़ उन की तरफ देख रहे थे. किसी के भी मुंह से आवाज नहीं निकली. वातावरण में एक सन्नाटा पसर गया था. अब क्या होगा? इस प्रश्न ने सभी की बुद्धि पर मानो ताला जड़ दिया था. राजेश को रोते हुए देख कर ऐसा लगा, मानो सबकुछ बिखर गया है. मेरा घरपरिवार मानो किसी ऐसी भंवर में फंस गया जिस का कोई किनारा नजर नहीं आ रहा था.
मैं खुद को संयत करते हुए राजेश से बोली, ‘‘चुप हो जाओ राजेश. तुम्हें इस तरह मैं हिम्मत नहीं हारने दूंगी. संभालो अपनेआप को. देखो, बच्चे भी तुम्हें रोता देख कर रोने लगे हैं. तुम इतने कमजोर कैसे हो सकते हो? अभी तो हमारे संघर्ष की शुरुआत हुई है. अभी तो आप को मां और पूरे परिवार को संभालना है. ऐसा कुछ नहीं हुआ है, जो ठीक न किया जा सके. हम मां को यहां बुलाएंगे और उन का इलाज करवाएंगे. मैं ने पढ़ा है, स्तन कैंसर इलाज से पूरी तरह ठीक हो सकता है.’’
मेरी बातों का जैसे राजेश पर असर हुआ और वे कुछ संयत नजर आने लगे. सभी को सुला कर रात में जब मैं बिस्तर पर लेटी तो जैसे नींद आंखों से कोसों दूर हो गई हो. राजेश को तो संभाल लिया पर खुद मेरा मन चिंताओं के घने अंधेरे में उलझ चुका था. मन रहरह कर पुरानी बातें याद कर रहा था. 10 वर्ष पहले जब शादी कर मैं इस घर में आई थी तो लगा ही नहीं कि किसी दूसरे परिवार में आई हूं. लगा जैसे मैं तो वर्षों से यहीं रह रही थी. माताजी का स्नेहिल और शांत मुखमंडल जैसे हर समय मुझे अपनी मां का एहसास करा रहा था. पूरे घर में जैसे उन की ही शांत छवि समाई हुई थी. जैसा शांत उन का स्वभाव, वैसा ही उन का नाम भी शांति था. वे स्कूल में अध्यापिका थीं.
स्कूल के साथसाथ घर को भी मां ने जिस निपुणता से संभाला हुआ था, लगता था उन के पास कोई जादू की छड़ी है जो पलक झपकते ही सारी समस्याओं का समाधान कर देती है. घर के सभी सदस्य और दूरदूर तक रिश्तेदार उन की स्नेहिल डोर से सहज ही बंधे थे. घर में ससुरजी, भाईसाहब, भाभी और दीदी में भी मुझे उन के ही गुणों की छाया नजर आती थी. लगता था मम्मीजी के साथ रहतेरहते सभी उन्हीं के जैसे स्वभाव के हो गए हैं.
इन सारी मधुर स्मृतियों को याद करतेकरते मुझे वह क्षण भी याद आया जब राजेश का तबादला जयपुर हुआ था. मम्मीजी ने एक मिनट भी नहीं सोचा और तुरंत मुझे भी राजेश के साथ ही जयपुर भेज दिया. खुद वे मेरी गृहस्थी जमाने वहां आई थीं और सबकुछ ठीक कर के एक सप्ताह बाद ही लौट गई थीं. यह सब सोचतेसोचते न जाने कब मेरी आंख लग गई. अचानक सवेरे दूध वाले भैया ने दरवाजे की घंटी बजाई तो आवाज सुन कर हड़बड़ा कर मेरी आंख खुली. देखा साढ़े 6 बज चुके थे.
‘अरे, बच्चों को स्कूल के लिए कहीं देर न हो जाए,’ सोचते हुए झपपट पहले दूध लिया. दोनों को तैयार कर के स्कूल भेजतेभेजते दिमाग ने एक निर्णय ले लिया था. राजेश की चाय बना कर उन्हें उठाते हुए मैं ने अपने निर्णय से उन्हें अवगत करा दिया. मेरे निर्णय से राजेश भी सहमत थे. राजेश ने भाईसाहब को फोन किया, ‘‘आप मां को ले कर आज ही जयपुर आ जाइए. हम मां का इलाज यहीं करवाएंगे, लेकिन आप मां को उन की बीमारी के बारे में कुछ भी मत बताना. और हां, कैसे भी उन्हें यहां ले आइए.’’ भाईसाहब भी राजेश से बात कर के थोड़ा सहज हो गए थे और उसी दिन ढाई बजे की बस से रवाना होने को कह दिया.
‘राजेश के साथ पारिवारिक डाक्टर रवि के यहां हो आते हैं,’ मैं ने सोचा, फिर राजेश से बात की. वे राजेश के बहुत अच्छे मित्र भी हैं. हम दोनों को अचानक आया देख कर वे चौंक गए. जब हम ने उन्हें अपने आने का कारण बताया तो उन्होंने हमें महावीर कैंसर अस्पताल जाने की सलाह दी. उसी समय उन्होंने वहां अपने कैंसर स्पैशलिस्ट मित्र डा. हेमंत से फोन कर के दोपहर का अपौइंटमैंट ले लिया. डा. हेमंत से मिल कर कुछ सुकून मिला. उन्होंने बताया कि स्तन कैंसर से डरने की कोई बात नहीं है. आजकल तो यह पूरी तरह से ठीक हो जाता है. आप सब से पहले मुझे यह बताइए कि माताजी की यह समस्या कब सामने आई?
मैं ने बताया कि एक सप्ताह पहले माताजी ने झिझकते हुए मुझे अपने एक स्तन में गांठ होने की बात कही थी तो अंदर ही अंदर मैं डर गई थी. लेकिन मैं ने उन से कहा कि मम्मीजी, आप चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा. जब 4-5 दिनों में वह गांठ कुछ ज्यादा ही उभर कर सामने आई तो मम्मीजी चिंतित हो गईं और उन की चिंता दूर करने के लिए भाईसाहब उन्हें दिखाने एक डाक्टर के पास ले गए. जब डाक्टर ने सभी जांच रिपोर्ट्स देखीं तो कैंसर की पुष्टि की.
सब सुनने के बाद डा. हेमंत ने भी कहा, ‘‘आप तुरंत माताजी को यहां ले आएं.’’ मैं ने उन्हें बता दिया कि वे आज शाम को ही यहां पहुंच रही हैं. डा. हेमंत ने अगले दिन सुबह आने का समय दे दिया. राहत की सांस ले कर हम घर चले आए.
रात साढ़े 8 बजे मम्मीजी भाईसाहब के साथ जयपुर पहुंच गईं. राजेश गाड़ी से उन्हें घर ले आए. आते ही मम्मीजी ने पूछा कि क्या हो गया है उन्हें? तुम ने यहां क्यों बुला लिया? मम्मीजी की बात सुन कर मैं ने सहज ही कहा, ‘‘मम्मीजी, ऐसा कुछ नहीं है. बच्चे आप को याद कर रहे थे और आप की गांठ की बात सुन कर राजेश भी कुछ विचलित हो गए थे, इसलिए मैं ने सामान्य चैकअप के लिए आप को यहां बुला लिया है. आप चिंता न करें, आप बिलकुल ठीक हैं.’’ मेरी बात सुन कर मम्मीजी सहज हो गईं. तभी बच्चों को चुप देख कर उन्होंने पूछा, ‘‘अरे, नीटूचीनू तुम दूर क्यों खड़े हो? यह देखो मैं तुम्हारे लिए क्याक्या लाई हूं.’’ बच्चे भी दादी को हंसते हुए देख दौड़ कर उन से लिपट पड़े. ‘‘दादीमां, आप कितने दिनों बाद यहां आई हो. अब हम आप को यहां से कभी भी जाने नहीं देंगे.’’ बच्चों के सहज स्नेह से अभिभूत मम्मीजी उन को अपने लाए खिलौने दिखाने में व्यस्त हो गईं, तो मैं रसोई में उन के लिए चाय बनाने चली गई. इसी बीच राजेश ने भाईसाहब को डा. हेमंत से हुई बातचीत बता दी. अगले दिन सुबह जल्दी तैयार हो कर मम्मीजी राजेश और भाईसाहब के साथ अस्पताल चली गईं.
कैंसर अस्पताल का बोर्ड देख कर मम्मी चौंकी थीं, पर राजेश ने होशियारी बरतते हुए कहा, ‘‘आप पढि़ए, यहां पर लिखा है, ‘भगवान महावीर कैंसर ऐंड रिसर्च इंस्टिट्यूट.’ कैंसर के इलाज के साथ जांचों के लिए यही बड़ा केंद्र है.’’ मां यह बात सुन कर चुप हो गई थीं. अगले 2 दिन जांचों में ही चले गए. इस दौरान उन्हें कुछ शंका हुई, वे बारबार मुझ से पूछतीं, ‘‘तुम ही बताओ, आखिर मुझे हुआ क्या है? ये दोनों भाई तो कुछ बताते नहीं. तुम तो कुछ बताओ. तुम्हें तो सब पता होगा?’’ मैं सहज रूप से कहती, ‘‘अरे, मम्मीजी, आप को कुछ नहीं हुआ है. यह स्तन की साधारण सी गांठ है, जिसे निकलवाना है. डाक्टर छोटी सी सर्जरी करेंगे और आप एकदम ठीक हो जाओगी.’’
‘‘पर यह गांठ कुछ दर्द तो करती नहीं है, फिर निकलवाने की क्या जरूरत है?’’ उन के मुंह से यह सुन कर मुझे सहज ही पता चल गया कि कैंसर के बारे में हमारी अज्ञानता ही इस रोग को बढ़ाती है. मम्मीजी ने तो मुझे यह भी बताया कि उन के स्कूल की एक अध्यापिका ने उन्हें एक वैद्य का पता बताया था जोकि बिना किसी सर्जरी के एक सप्ताह के भीतर अपनी आयुर्वेदिक गोलियों और चूर्ण से यह गांठ गला सकते हैं. मैं ने साफ कह दिया, ‘‘मम्मीजी, हमें इन चक्करों में नहीं पड़ना है.’’ मेरी बात सुन कर वे निरुत्तर हो गईं. जांच रिपोर्ट आने के तीसरे दिन ही डाक्टर ने औपरेशन की तारीख निश्चित कर दी थी. औपरेशन के एक दिन पहले ही रात को मम्मीजी को अस्पताल में भरती करवा दिया गया. राजेश और भाईसाहब मां की जरूरत का सामान बैग में ले कर अस्पताल चले गए.
अगले दिन ब्लडप्रैशर नौर्मल होने पर सवेरे 9 बजे मम्मीजी को औपरेशन थिएटर में ले जाया गया. हम लोग औपरेशन थिएटर के बाहर बैठ इंतजार कर रहे थे. साढ़े 11 बजे तक मम्मीजी का औपरेशन चला. उन के एक ही स्तन में 2 गांठें थीं. सर्जरी से डाक्टर ने पूरे स्तन को ही हटा दिया.
अचानक ही आईसीयू से पुकार हुई, ‘‘शांति के साथ कौन है?’ सुन कर हम सभी जड़ हो गए. राजेश को आगे धकेलते हुए हम ने जैसेतैसे कहा, ‘‘हम साथ हैं.’’ डाक्टर ने राजेश को अंदर बुलाया और कहा कि औपरेशन सफल रहा है. अब इस स्तन के टुकड़े को जांच के लिए मुंबई प्रयोगशाला में भेजेंगे ताकि यह पता लग सके कि कैंसर किस अवस्था में था. राजेश को उन्होंने कहा, ‘‘आप चिंता नहीं करें, आप की माताजी बिलकुल ठीक हैं. औपरेशन सफलतापूर्वक हो गया है तथा 4 से 6 घंटे बाद उन्हें होश आ जाएगा.’’
राजेश जब बाहर आए तो वे सहज थे. उन को शांत देख कर हमें भी चैन आया. तभी भाईसाहब ने परेशान होते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ? तुम्हें अंदर क्यों बुलाया था?’’ राजेश ने बताया कि चिंता की बात नहीं है. डाक्टर ने सर्जरी कर हटाए गए स्तन को दिखाने के लिए बुलाया था. मम्मीजी बिलकुल ठीक हैं.
शाम को करीब साढ़े 7 बजे मम्मीजी को होश आया. होश आते ही उन्होंने पानी मांगा. भाईसाहब ने उन्हें थोड़ा पानी पिलाया. तब तक दीदी भी बीकानेर से आ चुकी थीं. दीदी आते ही रोने लगीं तो हम ने उन्हें मां के सफल औपरेशन के बारे में बताया. जान कर दीदी भी शांत हो गईं. अगले दिन सुबह मां को आईसीयू से वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. उन्हें हलका खाना जैसे खिचड़ी, दलिया, चायदूध देने की इजाजत दी गई थी.
3 दिनों तक तो उन्हें औपरेशन कहां हुआ है, यह पता ही नहीं चला, लेकिन जैसे ही पता चला वे बहुत दुखी हुईं और रोने लगीं. तब मैं ने उन्हें बताया, ‘‘मम्मीजी, अब चिंता की कोई बात नहीं है. एक संकट अचानक आया था और अब टल चुका है. अब आप एकदम स्वस्थ हैं.’’ 10 दिनों तक हम सभी हौस्पिटल के चक्कर लगाते रहे. मम्मीजी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई तो फिर घर आ गए. घर पहुंच कर हम सभी ने राहत की सांस ली. भाईसाहब और दीदी को हम ने रवाना कर दिया. मां भी तब तक थोड़ा सहज हो गई थीं. अब उन्हें कैंसर के बारे में पता चल चुका था और वे समझ चुकी थीं कि औपरेशन ही इस का इलाज है.
एक महीने में उन के टांके सूख गए थे और हम ने हौस्पिटल जा कर उन के टांके कटवाए, क्योंकि वे एक मोटे लोहे के तार से बंधे थे. डाक्टर ने मम्मीजी का हौसला बढ़ाया तथा उन्हें बताया कि अब आप बिलकुल ठीक हैं. आप ने इस बीमारी का पहला पड़ाव सफलतापूर्वक पार कर लिया है. पहले पड़ाव की बात सुन कर हम सभी चौंक गए. ‘‘डाक्टर ये आप क्या कह रहे हैं?’’ राजेश ने जब डाक्टर से पूछा तो उन्होंने बताया कि आप की माताजी का औपरेशन तो अच्छी तरह हो गया है, लेकिन भविष्य में यह बीमारी फिर से उभर कर सामने न आए, इसलिए हमें दूसरे चरण को भी पार करना होगा और वह दूसरा चरण है, कीमोथेरैपी?
‘‘कीमोथेरैपी,’’ हम ने आश्चर्य जताया. डाक्टर ने बताया कि कैंसर अभी शुरुआती दौर में ही है. यह यहीं समाप्त हो जाए, इस के लिए हमें कीमोथेरैपी देनी होगी. कैंसर के कीटाणु के विकास की थोड़ीबहुत आशंका भी अगर हो तो उसे कीमोथेरैपी से खत्म कर दिया जाएगा. डाक्टर ने बताया कि आप की माताजी के टांके अब सूख चुके हैं. सो, ये कीमोथेरैपी के लिए बिलकुल तैयार हैं. अब आप इन्हें कीमोथेरैपी दिलाने के लिए 4 दिनों बाद यहां ले आएं तो ठीक रहेगा. पता चला, मां को कीमोथेरैपी दी जाएगी. कैंसर में दी जाने वाली यह सब से जरूरी थेरैपी है. 4 दिनों बाद मैं और राजेश मां को ले कर हौस्पिटल पहुंचे. 9 बजे से कीमोथेरैपी देनी शुरू कर दी गई. थेरैपी से पहले मां को 3 दवाइयां दी गईं ताकि थेरैपी के दौरान उन्हें उलटियां न हों. 2 बोतल ग्लूकोज की पहले, फिर कैंसर से बचाव की वह लाल रंग की बड़ी बोतल और उस के बाद फिर से 3 बोतल ग्लूकोज की तथा एक और छोटी बोतल किसी और दवाई की ड्रिप द्वारा मां को चढ़ाई जा रही थीं. धीरेधीरे दी जाने वाली इस पहली थेरैपी के खत्म होतेहोते शाम के 7 बज चुके थे. मैं अकेली मां के पास बैठी थी. शाम को औफिस से राजेश सीधे हौस्पिटल ही आ गए थे.
रात को 8 बजे हम तीनों घर पहुंचे. थेरैपी की वजह से मम्मीजी का सिर चकरा रहा था. हलका खाना खा कर वे सो गईं. अब अगली थेरैपी उन्हें 21 दिनों के बाद दी जानी थी. पहली थेरैपी के बाद ही उन के घने लंबे बाल पूरी तरह झड़ गए. यह देख कर हम सभी काफी दुखी हुए. बाल झड़ने के कारण मां पूरे समय अपने सिर को स्कार्फ से ढक कर रखती थीं. कई बार मां इस दौरान कहतीं, ‘‘कैंसर के औपरेशन में इतनी तकलीफ नहीं हुई जितनी इस थेरैपी से हो रही है.’’
मैं उन को ढाढ़स बंधाती, ‘‘मम्मीजी, आप चिंता मत करो, यह तो पहली थेरैपी है न, इसलिए आप को ज्यादा तकलीफ हो रही है. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’ थेरैपी के प्रभाव के फलस्वरूप उन की जीभ पर छाले उभर आए. पानी पीने के अलावा कोई चीज वे सहज रूप से नहीं खापी पाती थीं. यह देख कर हम सभी को बहुत कष्ट होता था. उन के लिए बिना मिर्च, नमक का दलिया, खिचड़ी बनाने लगी, ताकि वे कुछ तो खा सकें. फलों का जूस भी थोड़ाथोड़ा देती रहती थी ताकि उन को कुछ राहत मिले. इस तरह 21-21 दिन के अंतराल में उन की सभी 6 थेरैपी पूरी हुईं.
हालांकि ये थेरैपी मम्मीजी के लिए बहुत कष्टकारी थीं लेकिन हम सभी यही सोचते थे कि स्वास्थ्य की तरफ मां का यह दूसरा चरण भी सफलतापूर्वक संपन्न हो जाए, तो अच्छा है. जिस दिन अंतिम थेरैपी पूरी हुई तो मां के साथ मैं ने और राजेश ने भी राहत की सांस ली. जब डाक्टर से मिलने उन के कैबिन में गए तो खुश होते हुए डाक्टर ने हमें
बधाई दी, ‘‘अब आप की माताजी बिलकुल स्वस्थ हैं. बस, वे अपने खानेपीने का ध्यान रखें. पौष्टिक भोजन, फल, सलाद और जूस लेती रहें. सामान्य व्यायाम, वाकिंग करती रहें, तो अच्छा होगा.’’ इस के साथ ही डाक्टर ने हमें यह हिदायत विशेषरूप से दी कि जिस स्तन का औपरेशन हुआ है उस तरफ के हाथ पर किसी तरह का कोई कट नहीं लगने पाए. डाक्टर से सारी हिदायतें और जानकारी ले कर हम घर आ गए. अब हर 6 महीने के अंतराल में मां की पूरी जांच करवाते रहना जरूरी था ताकि उन का स्वास्थ्य ठीक रहे और भविष्य में इस तरह की कोई परेशानी सामने न आए. एक महीने आराम के बाद मम्मीजी वापस बीकानेर लौट गई थीं.
6 साल हो गए हैं. अब तो डाक्टर ने जांच भी साल में एक बार कराने के लिए कह दिया. मम्मीजी का जीवन दोबारा उसी रफ्तार और क्रियाशीलता के साथ शुरू हो गया. आज मम्मीजी अपने स्कूल और महल्ले में सब की प्रेरणास्रोत हैं. आज वे पहले से भी अधिक ऐक्टिव हो गई हैं. अब वे 2 स्तरों पर अध्यापन करवाती हैं- एक अपने स्कूल में और दूसरे कैंसर के प्रति सभी को जागरूक व सजग रहने के लिए प्रेरित करती हैं. उन्हें स्वस्थ और प्रसन्न देख कर मेरे साथ पूरा परिवार और रिश्तेदार सभी फिर से उन के स्नेह की छत्रछाया में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं.