कभी कभी लगता है कि जीवन और मौत के बीच हम सब कितनी जल्दी में सबकुछ हासिल करने की जुगत में लगे रहते हैं। हर दिन हम सब अगले दिन के लिए मेहनत करते हैं और एक दिन ऐसा भी आता है जब हम उस अगले दिन के लिए बचे नहीं रहते हैं। हमारा किरदार अपना काम कर किसी दूसरी यात्रा पर चला जाता है।
एक अधूरापन, कुछ बाकी काम, ढेर सारे सपने, अपने लोगों की आशाएं - उम्मीद...कुछ पाने की इच्छा, किसी के प्रति स्नेह, मोह, गुस्सा, कुछ खरीदने की, कुछ नया बनाने की...यह सब बीच में ही छोड़कर हम चले जाते हैं। एक सांस की डोर टूटती है और हमारी दूसरी यात्रा की टिकट कन्फर्म हो जाती है।
लेकिन इन सबके बीच गुजर गए शख्स की स्मृति हमारे पास रह जाती है। ऐसी ही एक अधूरी सी कहानी पार्थ की है।
कानपुर का यह लड़का रेडियो, प्रिंट, डिजिटल सब जगह खुद को बिखेरे हुए था। हाल ही में द बेटर इंडिया के डिजिटल स्पेस पर हम टकराए थे।
सौम्य था, व्यवहारिक था, शब्द से संजीदा तरीके से खेलता था। हम दोनों लेखन में एक दूसरे की गलतियों पर बात करते थे। मेरी कॉपी में कहां कुछ गलतियां रह जाती है, उसे पता था। बिंदु, चंद्र बिंदु हो या फिर कहानियों में मात्राओं का खेल, वह बेहतर तरीके से उसमें रच बस जाना चाहता था।
अचानक एक दोपहर जब गांव में था, मानबी कटोच जी का मैसेज आता है - पार्थ इज नो मोर..." कुछ पल के लिए ठहर जाता हूं कि यह क्या! अभी तो पार्थ की कहानी शुरू ही हुई थी, उसे तो अभी बहुत कुछ करना था। लेकिन सच तो सच होता है।
हर दिन सुबह हमारी बातचीत होती थी, एक वेबसाइट को कंटेंट के तौर पर किस तरह समृद्ध बनाया जाए, गलतियां कम हो, हेडिंग आकर्षक हो, इन्हीं सब के आसपास हमारी बात होती थी। हम एक बेहतर स्टाईल शीट पर गुफ्तगू किया करते थे। मानबी जी ने आजादी दी है कि काम अच्छा हो, इसके लिए हम खूब बात करें।
कुछ दिन पहले पार्थ ने पूछा था, अनायास ही कि देवरिया से दार्जिलिंग की दूरी कितनी है? दरअसल उसे पहाड़ से लगाव था। शायद ऊंचाई से वह बहुत कुछ देखना चाहता था।
फिर इस बातचीत के दो दिन तक हमारी बात नहीं हुई, शायद काम में ज्यादा व्यस्त हो गया था, वह वीडियो आदि भी बनाया करता था।
वह मेरे मन में बस गए शहर कानपुर का था। मैं उससे अक्सर कानपुर के मोहल्लों के बारे पूछता रहता था। ग्रीन पार्क, सिविल लाइंस हो या फिर डी ए वी कालेज हो या हो परमठ मन्दिर , इन सबकी खबर उससे लिया करता था। कुछ अलग ही लगता था कानपुर हमें। हम भी इस दौरान Msc के छात्र थे
डी ए वी कालेज के। वो इक ऐसा समय और शहर था, जिसकी यादें जेहन में गुंजती रहतीं हैं
मुझे दक्षिण भारत के एक शहर के कॉलोनी के नाम की वर्तनी को लेकर कनफ्यूजन था, बात करने के लिए फोन किया तो मोबाईल नेटवर्क एरिया से बाहर बताने लगा, सोचा कल बात करेंगे।
लेकिन कल की कहानी ही बदल गई। पता नहीं उस लड़के को किस चीज की हड़बड़ी थी! ऐसी भी क्या जल्दी थी कि वह दूर ही निकल गया।
मैं उसके निजी जीवन से ज्यादा नजदीक नहीं था लेकिन उसकी बातचीत से इस बात को जरूर महसूस करता था कि वह बेफिक्र है। बस इतना ही....
इन दिनों उसकी छवि मन में बस गई है, किसी फोटो फ्रेम की तरह। सचमुच, भाग्य चिड़िया बड़ी निठुर होती है....
हर सुबह लैपटॉप ऑन कर मेल चेक करते हुए लगता है, काश !
मेल बॉक्स में यह लिखा मिल जाए -
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