(Vinod kushwaha) Born in Eastern UP, a microbiologist by profession and unseen storyteller by soul, I walk where science and literature walk the dusty roads together, weaving unseen stories.
Wednesday, March 3, 2021
मेरे गाँव की सड़क
कहीं टूटती सी, कहीं फूटती सी, मेरे गाँव के बीच से गुज़रती ये टूटी-फूटी सड़क..जानती है दास्ताँ, हर कच्चे-अधपक्के मकान की, हर खेत,हर खलिहान की…ये सड़क जानती है,कब कल्लू की गय्या ब्याई थी,और कब रज्जन की बहू घर आई थी,ये सड़क जानती है,कब बग़ल के चाचा ने दम तोड़ा थी,कब चौरसिया ने लुगाई को छोड़ा थी..मेरे गाँव की सड़क ये जानती है,तिवरिया के आम के बाग़ सेरेंगती हुई इक पगड़डीसीधे निकलती है उस चौराहे पे,जहाँ चार बरस पहले,औंधे मुँह गिरा था श्यामलाल फिसलकर अपनी फटफटीया से..ये सड़क जानती है,इसी चौराहे पर पहली बार मिले थे नैनभोलू नउआ के रमकलिया से…मेरे गाँव की सड़क ये भी जानती है,गए साल पानी नहीं बरसा था..बूँद-बूँद को हर खेत तरसा था..मेरे गाँव की सड़क जानती है,इस साल किसानों की फिर उम्मीद बँधी है,गाँव की हर आँख आसमान पर लगी है..मेरे गाँव के बीच से, गुज़रती ये टूटी-फूटी सड़क, जानती है दास्ताँ, हर कच्चे-अधपक्के मकान की, हर खेत, हर खलिहान की…
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