हम पुर्वांचल के गांव से हैं और। हम शहर में रहते हैं, अच्छे पड़ लिखे हैं हम अनपढ़ नाही हैं। लेकिन अब तक गाँव की छवि से बाहर न निकल पाये हैं। धूप यहाँ शहर में होती है, हमारे यहाँ तो अब भी 'घाम' ही होता है। हैं। एकदम से बौड़म हैं हम।
चाय पीना नहीं आता हमें। सुडुक-सुडुक के पीते हैं। नमकीन को चाय में डाल देते हैं, फिर चम्मच से निकाल-निकाल के खाते हैं, सबसे पहले मोमफली का दाना फिर बाकी नमकीन। ऐसे ही बिस्कुट भी खाते हैं, पर कभी कभी बिस्कुट को 'बोर' के भी खा लेते हैं। सबके सामने आम और तरबूज खाने में शरम लगती है। रेस्टोरेन्ट जाने में घबराते हैं। हाँ.. सड़क के किनारे कोई ढाबा हुआ तो वहाँ सहज रहते हैं। एकदम ठोस देहाती हैं हम।
ड्रेसिंग सेंस एकदम शून्य है हमारा। लाल शर्ट के साथ हरी पैंट पहन लेते हैं। बालों में तेल सरसों वाला लगाते हैं। पुरुषों वाली फेस क्रीम (फेयर-हैंडसम) और स्त्रियों वाली फेस क्रीम (फेयर-लवली) में कोई भेद नहीं करते। जो सामने दिख गई वही लगा लेते हैं। कई बार फेसवाश को हेयर जेल समझ के बालों में लगाए हैं। शैम्पू केवल बालों में लगाने के लिए नहीं लाते, हाथ पैर भी धो लेते हैं इसी से। हम परफ्यूम डियो नहीं लगाते ,बेला वाला कन्नौज का सेंट लगाते हैं। बहुत बड़े वाले पगलेट हैं हम।
सामाजिकता की समझ नहीं है। बात करने में लड़खड़ा जाते हैं। हम दोस्तों से मिलते हैं तो हाय हैलो नहीं करते बल्कि चिल्ला के कहते हैं "कस रे सारे, कहां घूमत हवा। मार्केटिंग नहीं आती हमें। मोलभाव नहीं कर पाते हम। घर से मार्केट जाते हैं और कोई न कोई चीज लाना भूल जाते हैं हम। सब्जी लेने जाते हैं तो मोबाइल में लिख के जाते हैं। अपने लिए खुद से शर्ट-पैंट नहीं पसंद कर पाते और न ही खरीद पाते हैं। थोड़े क्या पूरे ही चिलबिल्ले हैं हम।
अब बताओ
क्या तुम इस खंडूस, देहाती, चिलबिल्ले, बौड़म, पगलेट के साथ अपनी जिन्दगी झंड करोगी...??
बताना जरुर 😄
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