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Sunday, March 24, 2019

अफसोस ! हम खुशियों के आयाम तय कर चुके हैं

अफसोस ! हम खुशियों के आयाम तय कर चुके हैं


' तुम कुछ नही कर सकते ये मैं जानता हूँ ...' रमन को आज सुबह से डांटें मिल रही थी | कभी उसके पापा से तो कभी रिश्तेदारों से , उसकी एक बहन थी जो शायद उसे समझ रही थी कि आखिर वो सही नही भी है तो , गलत हरगिज नही है |
रमन हमेशा की तरह चुपचाप था ओर कभी चेहरे को भावहीन कर लेता तो कभी हल्का सा मुसकूरा देता जो काफी था उसके अपनों के गुस्से को हवा देने में |
आज रमन को डांट सिर्फ इसलिए पड रही थी कि उसने नौकरी से रिजाइन कर दिया था | 'अच्छी खासी सैलरी को भला कौन ऐसे लात मारता है ये तो पगला गया है ' सुबह ही उसकी मौसी ने कहा था |
' पापा आपने अपनी बात खत्म कर ली हो तो मैं कुछ कहूँ ? ' रमन ने बहूत ही सलीखे से पुछा.
' कहने को रहा ही क्या है अब , तुझे करना था वो तो तु कर चुका है नालायक हमेशा मेरे ही टूकडो पर पलता रहेगा क्या ?
रमन इतना सुनते ही उठकर चला गया |
रमन को वक्त की ठोकरों ने बहूत कुछ सीखाने के साथ एक अच्छी चीज ये सीखा दी थी कि वो शांत रहना सीख चुका था ओर संयम तो मानों उसमें कूट कूट कर भरा हो लेकिन दुनियाँ के लिए वो एक बूरी बात ये सीख चुका था कि उसने शब्दों पर जीना सीख लिया था जो हर पल समाज के नियमों को चुनौती देता |

रमन जब प्रथम वर्ष में था तब उसका एक ही सपना था ' बडा आदमी बनना ' | जिसके पास भले ही प्रतिष्ठा न हो मगर वो पैसों से प्रतिष्ठा खरीद सके | उसे उस समय विश्वास हो चुका था कि वो पैसों से प्रतिष्ठा खरीदी जा सकती है वो समाज में पैसे दान करके प्रतिष्ठा खरीद लेगा चाहे फिर पैसा किसी रास्ते से कमाता हो |

मगर उसके पापा ने हर बार इस बात पर जोर दिया कि इंसानियत सबसे बढकर है , पैसों को कौन पुछता है ? '
' पापा ! अगर ये सच है तो चलो ऐसा करके ही देखते हैं ' ये आज से सात साल पहले के कहे रमन के ही शब्द थे जो उसने अपने पापा को जबाब में कहे थे |
लेकिन परिणाम वो नही निकला जो उसके पापा चाहते थे | रमन ने उसके बाद सुबह से शाम अपनो में गुजारना शुरू कर दिया ओर हर आदमी को इतनी इज्जत देता कि मानों वो इंसानियत की एक मूर्ती हो , सुबह सुबह गऊशाला जाना , घर आए मेहमान की कद्र करना , भौतिक सुखों से दूरी ओर पहनवा ओर उसका रहन सहन तो मानों ऐसा हो गया कि उसके घरवालों की प्रतिष्ठा पर एक धब्बा हो , उसने तीन साल तक कोई कपडे नही खरीदे | वो शादी ओर पार्टीयों में कभी नहाये हूए तो कभी बिना नहाये ही साधारण से कपडो में चला जाता | अब रमन का ये व्यवहार घरवालों के लिए दोगूनी मुसीबत बनता जा रहा था क्योंकि वो ऐसा कोई काम नही करता जिसकी बदौलत उसे कोई डांट सके मगर घरवालों को तकलीफ इस बात की थी कि वो भौतिक सुखों से दर्शायें जाने वाली घर की प्रतिष्ठा को चुनौती दे रहा था |
' तु देवता बन जा या संयासी , मुझे पता है मेहनत तो तुझसे होती ही नही बेरोजगार घुमता रहेगा क्या ? ' रमन के पापा ने दो साल पहले गुस्से में कहा था |
' पापा जी मैनें अपना खर्चा सीमित कर दिया है ओर आप नौकरी करते है ओर अब ये भी कह चुके हैं कि आप मुझसे कुछ माँगेगे नही ओर मुझे देगे नही तो मैं कैसे ही रहूँ ये कहाँ माईने रखता है मैं खुश हूँ क्या ये कम है आपके लिए ? ' रमन ने जबाब दिया |
' हाँ ! इंसान अपनी कमजोरी छुपाने के लिए ऐसा करता है ओर कर भी तो क्या सकता है तु ..' रमन के पापा ने मानों उस दिन व्यगंय बाणों की बौछार कर दी हो |
लेकिन अंत की एक लाइन रमन को उस दिन चुभ गई थी ' तु सरकारी नौकरी तो जिदंगी भर लग ही नही सकता ये मेरा चैलेंज है '
सारा भखेडा सुबह से इसी बात पर चल रहा था | उस व्यंग्य बाण का जबाब तो रमन के पापा को एक महिने पहले ही मिल चुका था लेकिन रमन चुप रहा | हंगामा आज इस बात पर हूआ कि रमन ने पचास हजार रूपये की महिने नौकरी छोड आज किताबों की दुकान करने का फैसला लिया था | उसका तर्क बस एक ही था जो उसकी बहन जानती थी |
रमन की चाहत थी कि जब वो थोडे पैसों में जिदंगी जी सकता है तो ज्यादा पैसे कमाने के चक्कर में खुद को दुनियाँ की दौड में शामिल क्यों करें वो किताबों की दूकान करेगा ओर वहाँ किताबें भी पढ सकेगा ओर जिदंगी भी गुजार लेगा वो भी खुशी से |मगर अफसोस दुनियाँ ने खुशियों के आयाम निर्धारित कर दिये हैं |

Written by ..  Vinod kumar kushwaha. 

                       My own think of my life

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