बेटा शहर में रहता है। अच्छा कमा लेता है अब। एक महीने की तनख्वाह से पूरा ६ महीने की फसल खरीद सकता है। लेकिन बारिश के बाद घर फोन कर के पिता से ये जान कर दुखी हो जाता है। कि इस बार की बारिश से गेहूं की फसल को नुकसान हो गया है। ये दुख पैसों की नुकसान का नहीं है। ये दुख है उसको उसके खेत और फसलों से लगाव का जहां उसका बचपना बीता है। वो बड़ा हुआ है। बढ़ती हुई फसलों के साथ। गेहूं धान की बालियों के साथ खेलते हुए। पकते हुए फसलों को देख कर वो महसूस किया है। लंबे इंतज़ार के बाद की खुशी जब पकी फसले आंगन में दस्तक देती है। तो जो खुशी जो सुकून आता है , उसको उस सुकून का छीन जाने का दुख है। उसको समृद्धियों का वापस आ जाने से दुख है। सबसे ज्यादा जो दुख हैं उसको वो पिता का दुखी हो जाना है। जिसकी भरपाई पैसों से नहीं की जा सकती। मेरा मानना है कि हर दुःख को पैसों से नही ठीक किया जा सकता।
(Vinod kushwaha) Born in Eastern UP, a microbiologist by profession and unseen storyteller by soul, I walk where science and literature walk the dusty roads together, weaving unseen stories.
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