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Sunday, June 1, 2025

गोदान: जहां हर किरदार किसी अपने जैसा लगता है"

गोदान"  जो पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांव को बहुत गहराई से बया करता है। और आज भी पढ़ते वक्त लगता ही नहीं है। कि ये 1940 से पहले लिखी गई है। बहुत लोगों ने पढ़ा है आज भी सुनता हु, हर सिविल सेवा में जाने वाले इसे जरूर पढ़ते है। और बताया जाता है, की यह नोवेल काल्पनिक है, हमे लगा पढ़ते वक्त की हर वो बात काल्पनिक है। जब तक हम उसे देखे नहीं है। 1936 नहीं है। फिर भी अगर आप गांव में देखोगे तो आज भी ऐसे परिवार है जो। "होरी, रायसाहब,  गोबर, पंडित दातादीन, धनिया, मालती, झुनिया, गोविंदी. मिल जाएंगे, जमीदार तो नहीं देखा है। लेकिन इसके अलावा हर पात्र को मैने देखा है; गांव में जो आज भी इसी स्थिति में वैसे ही है। जैसे इस उपन्यास में लिखा गया हैं। होरी जैसे लोगो को देख है, जो होरी से भी दयनीय अवस्था में जीवन यापन करते है, गोदान से भी मार्मिक कहानियां आज भी समाज में है। लेकिन वो तबका समाज का ऐसा है। जहां तक किसी की नजर ही नहीं जाती। न कोई बात करता हैं उनकी, एक बात तो है!  होरी जैसे लोगो के लड़के गोबर जैसे ही होते है, देखा है हमने बहुत सारे होरी के लड़के गोबर जैसा बनते हुए। तभी तो पढ़ते वक्त लगता है। अब न ही पड़ा जाए तो सही है। जब लेखक सामने देखी समाज के घटनाओं को लिखता है। न तो ऐसी ही कहानियों निकल के आती है। जो शायद आज के दौर के CBSC वाले लेखक कभी लिख ही नहीं सकते। न ऐसे उपन्यास दोबारा लिखा जाएगा। 

Thursday, May 15, 2025

UPH प्रश्न-पुस्तिका: किताबों से जुड़ी एक परछाई

 पुराने जगहों पे पुरानी चीजें ही। अतीत को याद दिलाती है। अगर पुरानी चीजें पुरानी जगह से सब कुछ बदल जाए तो। मान लेना चाहिए कि आप वहां कभी गए ही नहीं। क्यों कि वो जगह आपके लिए फिर नया हो जाता है। " जब भी पुरानी जगहों पे पुरानी चीजें दिखती है अतीत सामने आ जाता है। कॉलेज के दिनों में एक प्रश्न उत्तर पुस्तिका एग्जाम से लगभग २ महीने पहले प्रकाशित होती थी। UPH नाम से गोरखपुर यूनिवर्सिटी के लिए। एग्जाम से २ महीने पहले हर बुक स्टाल और छात्रों के हाथों में थम सा जाता था। कोचिंग न करने वाले छात्रों के लिए बहुत बड़ा सहारा था ये। जैसे जैसे एग्जाम खत्म होने के कगार पे आता था। ये धीरे धीरे विलुप्त होने लगता था। लगभग 6.7 सालों बाद मैने इसे एक बुक स्टॉल पर देखा और इसे देखते हुए आगे बढ़ गया, जैसे कभी कभी किसी पुराने परिचित को देखते हुए बिन बोले हम आगे बढ़ जाते है। गोरखपुर जाने के लिए जब में ट्रेन में बैठा तब तक मेरी नजर। कुछ छात्रों पे गई, जिसमें से कुछ छात्र UPH ले के बैठे थे। और कुछ पढ़ रहे थे। अक्सर ट्रेन और बस से आने जाने वाले छात्र  आपको दिख जाएंगे पढ़ते हुए। किसी ट्रेन या बस में, मैने पास में रखी हुई UPH से इक बॉटनी का सीरीज ले के देखा, लिखा था कवर पेज पर। 
गोरखपुर यूनिवर्सिटी,  UPH Question Bank २५ वर्षों से, यूनिवर्सल पब्लिशिंग टेस्ट हाउस गोरखपुर, वही पुरानी लाइन।

 कुछ पेज को पलट के देखने के बाद मुझे ऐसा लगा जैसे किसी पुराने बहुत खास इंसान से मुलाकात हुई हो। यकीन मानिए पुराने इंसान में बदलाव आ सकता है। लेकिन पुरानी किसी वास्तु में नहीं। आप कभी मिल के देखना, किसी वास्तु से पुरानी खिलौने, पुरानी किताबे, पुरानी साइकिल, पुराने कपड़े, या पुराने किसी रास्ते से,  हमे लगता है। अतीत को इंसानों से ज्यादा ये न बोलने वाली चीजें आपको याद दिल देगी। आपका अतीत।

Tuesday, April 15, 2025

“खेतों का इंतजार: बारिश और बचपन”

 बेटा शहर में रहता है। अच्छा कमा लेता है अब। एक महीने की तनख्वाह से पूरा ६ महीने की फसल खरीद सकता है। लेकिन बारिश के बाद घर फोन कर के पिता से ये जान कर दुखी हो जाता है। कि इस बार की बारिश से गेहूं की फसल को नुकसान हो गया है। ये दुख पैसों की नुकसान का नहीं है। ये दुख है उसको उसके खेत और फसलों से लगाव का जहां उसका बचपना बीता है। वो बड़ा हुआ है। बढ़ती हुई फसलों के साथ। गेहूं धान की बालियों के साथ खेलते हुए। पकते हुए फसलों को देख कर वो महसूस किया है। लंबे इंतज़ार के बाद की खुशी जब पकी फसले आंगन में दस्तक देती है। तो जो खुशी जो सुकून आता है , उसको उस सुकून का छीन जाने का दुख है। उसको समृद्धियों का वापस आ जाने से दुख है। सबसे ज्यादा जो दुख हैं उसको वो पिता का दुखी हो जाना है। जिसकी भरपाई पैसों से नहीं की जा सकती। मेरा मानना है कि हर दुःख को पैसों से नही ठीक किया जा सकता।   

Sunday, February 16, 2025

एकांत: भीड़ से परे, अपने सबसे करीब”

हर शहर के बीच में कही न कही कुछ एकांत स्थान होता है।
जो बया करता है अपना अतीत। की उन्हें कैसे मिटाया गया,
कैसे एक हरे भरे मैदान पेड़ पौधों और कच्ची सड़कों को
उजड़ कर ऊंची ऊंची इमारतों और कंक्रीट का रास्तों को बनाया गया।   लेकिन सुनता कौन है। 
शोरो के बीच दबी हुई धीमी आवाजों को जो आवाजें अब विलुप्त होने के कगार पे जा चुकी हो। न जाने ऐसे ही कितनी आवाजें झोपड़पट्टियों से निकल कर ऊंची इमारतों और सरकारी दफ्तरों तक नहीं पहुंच पाती। कई आवाजें इंसान से निकल कर दूसरे इंसान तक नहीं पहुंच पाती। कुछ धीमी आवाजें तो खुद के कानों तक भी नहीं पहुंच पाती। वो आवाजें जो कभी शोर किया करती थी एक समय में। वो आवाजें अब किसी और शोर के वजह से अब धीमी सुनाई देती है!  कही न कही हमें लगता है धीमी आवाजें एकांत पैदा करती है। और इसे सुनने के लिए एकांत कि जरूरत होती है। शोरो के बीच धीमी आवाजें कभी सुनाई नहीं देगी विज्ञान कहता है। अगर कभी किसी धीमी आवाजों को सुनना है तो उससे एकांत में मिलो। हमे लगता है हर चीज कुछ न कुछ कहती है। कभी किसी इंसान से ही मिलो किसी एकांत में, हमे लगता है हर इंसान के अन्दर अनगिनत कई सारी धीमी आवाजें है। जो बाहर आने के लिए एकांत ढूंढती है। 

Monday, February 3, 2025

अतीत की दस्तक: जब चीज़ें बोल उठती हैं"

अम्मा सांवली थी
उसके सांवले चेहरे को देखना
बचपन के सबसे पसंदीदा
कामों में से एक था
उसके हाथ

गुलाबी फूलों की तरह
कोमल नहीं थे
ईंट भट्ठे की ताप ने
हथेलियों को पारदर्शी कर दिया था।