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हर बार कुछ भी वैसा नहीं होता।

हर बार कुछ नया दिखता है। कुछ पुराने के साथ। बच्चे बड़े हो जाते है, बड़े के चेहरे पे झुरिया आ गई होती है। बूढ़े और झुक गए होते है, पौधा पेड़ बन गया होता है, छोटे बरगद, पीपल, नीम, सब बड़े वृक्ष में तब्दील हो गए होते है, कुछ पुराने पेड़ कट चुके होते है। समय के साथ सब कुछ बदल चुका होता है। हर बार कुछ पुराने लोग पुराने वृक्ष खत्म हो चुके होते है, समय के समृद्धियों में ये दफन होते लोग जो हर बार नहीं मिलते जो पिछले बार मिले थे। एहसास दिला जाते है। अपने खुद के चेहरे की रूप, ढलते उमर की एहसास, और जीवन का अंतिम लक्ष्य, जो व्यस्त जीवन में ठीक से देखने का मौका तक नहीं मिलता, गांव से जाने और हमेशा के लिए वापस आने तक, बहुत कुछ बदल चुका होता है, जैसे चमकते चेहर और सिल्की बॉल, झुरिया, पक्के बालों और झूलती मांशपेशियों में तब्दील हो गई होती है। कितनी निराधार है भविष्य की कल्पनाएं। 

आदमी बिन पैरों वाला

 कभी कभी कुछ चीजें आंखों के सामने आती है तो गहरा अनुभव दे जाती है। यू एक शहर से गुजर रहा था। तो मेरी नजर एक आदमी पे पड़ी। पैरों में लंबी पट्टी लपेटा हुआ था। चलने में अस्मर्थ था। हाथों के बल चल रहा था, दुबला पतला सा इंसान। ऐसे बहुत लोग नजर आ जाएंगे आपको जो दिखते हुए किसी को दिखाई नहीं देते। न समाज के ठेकेदारों को न सरकारों को, मै सोचा इस व्यक्ति के पास धैर्य कितना होगा। जो जी रहा है। और उम्मीद किस बात की जीने की या कुछ करने की। और होगा कौन इसके जीवन में। जो सड़ गल गए पैर पे इस हालत में रोड पे रेंग रहा है। ये आदमी कौन होगा। चलते जा रहा था। देखा एक दुकान वाले ने तरस खा के थोड़ी से चावल और पानी दे दिए। खाने को शायद ऐसे ही जी रहा होगा। ये आदमी।  आए दिन आत्महत्या की खबर आती रहती है। उनके पास इससे खराब स्थिति तो होगी नहीं। फिर भी जीवन से चले जाते है लोग उमर से पहले। शायद ये इंसान इस लिए जी रहा होगा की ये ऐसी ही जीवन जीते देखा है औरों को। कही न कही ये भिखारी ही रहा होगा। वर्ना किस के पास हिम्मत होती। ऐसी जीवन जीने की। जीवन कभी भी कोई रूप ले सकती है। चाहे आप कितने भी अमीर क्यों नहीं ...

गोदान: जहां हर किरदार किसी अपने जैसा लगता है"

गोदान"  जो पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांव को बहुत गहराई से बया करता है। और आज भी पढ़ते वक्त लगता ही नहीं है। कि ये 1940 से पहले लिखी गई है। बहुत लोगों ने पढ़ा है आज भी सुनता हु, हर सिविल सेवा में जाने वाले इसे जरूर पढ़ते है। और बताया जाता है, की यह नोवेल काल्पनिक है, हमे लगा पढ़ते वक्त की हर वो बात काल्पनिक है। जब तक हम उसे देखे नहीं है। 1936 नहीं है। फिर भी अगर आप गांव में देखोगे तो आज भी ऐसे परिवार है जो। "होरी, रायसाहब,  गोबर, पंडित दातादीन, धनिया, मालती, झुनिया, गोविंदी. मिल जाएंगे, जमीदार तो नहीं देखा है। लेकिन इसके अलावा हर पात्र को मैने देखा है; गांव में जो आज भी इसी स्थिति में वैसे ही है। जैसे इस उपन्यास में लिखा गया हैं। होरी जैसे लोगो को देख है, जो होरी से भी दयनीय अवस्था में जीवन यापन करते है, गोदान से भी मार्मिक कहानियां आज भी समाज में है। लेकिन वो तबका समाज का ऐसा है। जहां तक किसी की नजर ही नहीं जाती। न कोई बात करता हैं उनकी, एक बात तो है!  होरी जैसे लोगो के लड़के गोबर जैसे ही होते है, देखा है हमने बहुत सारे होरी के लड़के गोबर जैसा बनते हुए। तभी त...

UPH प्रश्न-पुस्तिका: किताबों से जुड़ी एक परछाई

 पुराने जगहों पे पुरानी चीजें ही। अतीत को याद दिलाती है। अगर पुरानी चीजें पुरानी जगह से सब कुछ बदल जाए तो। मान लेना चाहिए कि आप वहां कभी गए ही नहीं। क्यों कि वो जगह आपके लिए फिर नया हो जाता है। " जब भी पुरानी जगहों पे पुरानी चीजें दिखती है अतीत सामने आ जाता है। कॉलेज के दिनों में एक प्रश्न उत्तर पुस्तिका एग्जाम से लगभग २ महीने पहले प्रकाशित होती थी। UPH नाम से गोरखपुर यूनिवर्सिटी के लिए। एग्जाम से २ महीने पहले हर बुक स्टाल और छात्रों के हाथों में थम सा जाता था। कोचिंग न करने वाले छात्रों के लिए बहुत बड़ा सहारा था ये। जैसे जैसे एग्जाम खत्म होने के कगार पे आता था। ये धीरे धीरे विलुप्त होने लगता था। लगभग 6.7 सालों बाद मैने इसे एक बुक स्टॉल पर देखा और इसे देखते हुए आगे बढ़ गया, जैसे कभी कभी किसी पुराने परिचित को देखते हुए बिन बोले हम आगे बढ़ जाते है। गोरखपुर जाने के लिए जब में ट्रेन में बैठा तब तक मेरी नजर। कुछ छात्रों पे गई, जिसमें से कुछ छात्र UPH ले के बैठे थे। और कुछ पढ़ रहे थे। अक्सर ट्रेन और बस से आने जाने वाले छात्र  आपको दिख जाएंगे पढ़ते हुए। किसी ट्रेन या बस में...

“खेतों का इंतजार: बारिश और बचपन”

 बेटा शहर में रहता है। अच्छा कमा लेता है अब। एक महीने की तनख्वाह से पूरा ६ महीने की फसल खरीद सकता है। लेकिन बारिश के बाद घर फोन कर के पिता से ये जान कर दुखी हो जाता है। कि इस बार की बारिश से गेहूं की फसल को नुकसान हो गया है। ये दुख पैसों की नुकसान का नहीं है। ये दुख है उसको उसके खेत और फसलों से लगाव का जहां उसका बचपना बीता है। वो बड़ा हुआ है। बढ़ती हुई फसलों के साथ। गेहूं धान की बालियों के साथ खेलते हुए। पकते हुए फसलों को देख कर वो महसूस किया है। लंबे इंतज़ार के बाद की खुशी जब पकी फसले आंगन में दस्तक देती है। तो जो खुशी जो सुकून आता है , उसको उस सुकून का छीन जाने का दुख है। उसको समृद्धियों का वापस आ जाने से दुख है। सबसे ज्यादा जो दुख हैं उसको वो पिता का दुखी हो जाना है। जिसकी भरपाई पैसों से नहीं की जा सकती। मेरा मानना है कि हर दुःख को पैसों से नही ठीक किया जा सकता।   

एकांत: भीड़ से परे, अपने सबसे करीब”

हर शहर के बीच में कही न कही कुछ एकांत स्थान होता है। जो बया करता है अपना अतीत। की उन्हें कैसे मिटाया गया, कैसे एक हरे भरे मैदान पेड़ पौधों और कच्ची सड़कों को उजड़ कर ऊंची ऊंची इमारतों और कंक्रीट का रास्तों को बनाया गया।   लेकिन सुनता कौन है।  शोरो के बीच दबी हुई धीमी आवाजों को जो आवाजें अब विलुप्त होने के कगार पे जा चुकी हो। न जाने ऐसे ही कितनी आवाजें झोपड़पट्टियों से निकल कर ऊंची इमारतों और सरकारी दफ्तरों तक नहीं पहुंच पाती। कई आवाजें इंसान से निकल कर दूसरे इंसान तक नहीं पहुंच पाती। कुछ धीमी आवाजें तो खुद के कानों तक भी नहीं पहुंच पाती। वो आवाजें जो कभी शोर किया करती थी एक समय में। वो आवाजें अब किसी और शोर के वजह से अब धीमी सुनाई देती है!  कही न कही हमें लगता है धीमी आवाजें एकांत पैदा करती है। और इसे सुनने के लिए एकांत कि जरूरत होती है। शोरो के बीच धीमी आवाजें कभी सुनाई नहीं देगी विज्ञान कहता है। अगर कभी किसी धीमी आवाजों को सुनना है तो उससे एकांत में मिलो। हमे लगता है हर चीज कुछ न कुछ कहती है। कभी किसी इंसान से ही मिलो किसी एकांत में, हमे लगता है हर इंसान के अन्दर अ...

अतीत की दस्तक: जब चीज़ें बोल उठती हैं"

अम्मा सांवली थी उसके सांवले चेहरे को देखना बचपन के सबसे पसंदीदा कामों में से एक था उसके हाथ गुलाबी फूलों की तरह कोमल नहीं थे ईंट भट्ठे की ताप ने हथेलियों को पारदर्शी कर दिया था।