सरसता से बहती हुई सी
सरलता से जुड़ती हुई सी
हर राहगीर को अपना बना लेती हैं..
हर दिशा में मुड़ती हुई सी।
वो तो केवल जुड़ना ही जानती हैं
शहर के रास्तों में कहाँ धैर्य इतना
कब जानते हैं वो पीछे मुड़ना
उनको तो बस विकास के नाम पर
आगे दौड़ना आता है
तभी तो हर रास्ता मार्ग की ओर
और मार्ग राजमार्गों की ओर जाता है
आज पगडंडियाँ भी अपना अस्तित्व खो रही हैं
गाँव की मिट्टी लुक और डामर के नीचे दब रही है।
एक दिन सब जगह बस सड़कों का ही जाल बिछ जायेगा
फिर कोई भूला भटका राहगीर पगडंडी नही ढूंढ पायेगा
गावं शहरों में ही तब्दील हो जायेंगे
और फिर कोई अपने गांव नही लौट पायेगा।
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